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अष्टमाधिकार यथास्तिर्यगूधं च लोष्टवाम्बग्निवोचयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ते तथोक्गतिरात्मनाम् ॥३१॥ ऊध्वंगौरवधर्माणी जीवा इति जिनोत्तमः । अधोगौरवधर्माणः पुद्गला इति चोदितम् ॥३२॥ अतस्तु गतिवैकृत्यं तेषां यदुपलभ्यते । कर्मणः प्रणिधान प्रयोगशान नदिध्यते ॥३३॥ अवस्तियक्तथोद्ध्वं च जीवानां कर्मजागतिः ।
ऊध्र्वमेव स्वभावेन भवति क्षीणकर्मणाम् ॥३४॥ अर्थ-समस्त कर्मोंका क्षय होनेके बाद वह जीव पूर्वप्रयोग, असङ्गत्व, बन्धच्छेद तथा ऊर्ध्वगौरव स्वभाब इन चार कारणोंसे लोकके अंत तक गमन करता है । जिस प्रकार कुम्भकारके चक्र, हिंडोला और बाणमें पूर्वप्रयोगसेपहलेके संस्कारसे आर्म-क्रिया होती है उसी प्रकार पूर्वप्रयोगसे सिद्धजीवोंकी मति मानी गई है। जिस प्रकार मिट्टीके लेपका सङ्ग छूट जानेसे पानीमें तूमड़ी की ऊध्वगति मानी गई है। जिस प्रकार चोंडीका बन्धन नष्ट होने पर चटकती हुई एरण्डकी बिजी में कर्ध्वगति होती है उसी प्रकार कर्मवन्धनके नष्ट होनेसे मुक्तजीवको ऊर्ध्वगति मानी जाती है। जिस प्रकार पत्थरके टेलोंको गति मोचेकी ओर, बायुको गति तिरछी-चारों ओर और अग्निकी ज्वालाओंकी गति ऊपर की ओर स्वभावसे होती है उसी तरह मुक्तजीवोंकी गति ऊपरकी ओर स्वभावसे होती है । जीच कर्ध्वगति स्वभाव वाले हैं और पुद्गल अधोगति स्वभाववाले हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवानने कहा है। उन जीव और पुद्गलोंमें जो गतिकी विकृति--विभिन्नता पाई जाती है वह कर्मों के कारण, किसी अन्य वस्तुके प्रतिघातसे अथवा प्रयोगविशेषसे मानी जाती है। संसारी जीवोंकी कर्मजन्य गति नोचे, तिरछी और ऊपरकी ओर होती है परन्तु कमरहित जीवोंकी गति स्वभावसे ऊपरकी ओर ही होती है ।। २७-३४ ।।
कर्मक्षय और ऊथ्वंगमन साप हो साथ होती है द्रव्यस्य कर्मणो यद्वदुत्पत्त्यारम्भवीतयः । समं तथैव सिद्धस्य गतिर्मोक्षे भवक्षयात् ।।३५।। उत्पत्तिश्च विनाशश्च प्रकाशतमसोरिह । युगपद्भवतो यद्वत्तभिर्वाणकर्मणोः ॥३६॥