Book Title: Tattvarthsar
Author(s): Amrutchandracharya, Pannalal Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 253
________________ २०० सस्वार्थसार अर्थ-जिस प्रकार द्रव्यकर्मकी उत्पत्तिका प्रारम्भ और विनाश साथ ही साथ होते हैं उसी प्रकार सिद्ध भगवान्की मोक्षविषयक गति संसारका क्षय होते ही साथ-ही-साथ होती है 1 जिम प्रकार प्रकाशकी उत्पत्ति और अन्धकारका विनाश एक साथ होता है उसी प्रकार निर्वाणको उत्पत्ति और कर्मका विनाश एक साथ होता है ।। ३५-३६ ॥ सिद्ध भगवान्के किस कर्मके अभावमें कौन गुण प्रकट होता है ? ज्ञानावरणहानात्ते केवलज्ञानशालिनः । दर्शनावरणच्छेदादुद्यत्केवलदर्शनाः ॥३७॥ वेदनीयसमुच्छेदादव्यावाधत्वमाश्रिताः । मोहनीयसमुच्छेदात्सम्यक्त्वमचलं श्रिताः ॥३८॥ आयुःकर्मसमुच्छेदादवगाहनशालिनः । नामकर्मसमुच्छेदात्परमं सौम्यमाश्रिताः ॥३९॥ गोत्रकर्मसमुन्छेदात्सदाऽगौरवलाघवाः । अन्तरायसमुच्छेदादनन्तवीर्यामाश्रिताः ॥४०॥ अर्थ-वे सिद्ध भगवान् झानावरण कर्मका क्षय होनेसे केवलज्ञानसे सुशोभित रहते हैं, दर्शनावरण कर्मका क्षय होनेसे केवलदर्शनसे सहित होते हैं, वेदनीय कर्मका क्षय होनेसे अन्यावाधत्वगुणको प्राप्त होते हैं, मोहनीय कर्मका विनाश होनेसे अविनाशी सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं, आयुकर्मका बिच्छेद होनेसे अवगाहना को प्राप्त होते हैं, नामकर्मका उच्छेद होनेसे सूक्ष्मत्वगुणको प्राप्त हैं, गोत्रकर्मका विनाश होनेसे सदा अगुरुलघुगुणसे सहित होते हैं और अन्तरायका नाश होनेसे अनन्तवीर्यको प्राप्त होते हैं ॥ ३७-४० ॥ सिद्धों में विशेषताके कारण क्या हैं ? काललिङ्गगतिक्षेत्रतीर्थज्ञानावगाहनः । बुद्धयोधितचारित्रसङ्ग्याल्पबहुतान्तरैः ॥४१॥ प्रत्युत्पन्ननयादेशात्ततः प्रज्ञापनादपि । अप्रमत्तैर्बुधैः सिद्धाः साधनीया यथागमम् ॥४२।। अर्थ-प्रमादरहित विद्वानों द्वारा वर्तमान नय तथा भूतपूर्व प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा काल, लिङ्ग, गति, क्षेत्र, तीर्थ, ज्ञान, अवगाहना, बुद्धबोधित,

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