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सप्तमाधिकार
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एकत्वशुक्लध्यानका लक्षण द्रव्यमेकं तथैकेन योगेनान्यतरेण च ।
ध्यायति क्षीणमोहो यत्तदेकत्वमिदं भवेत् ॥४८॥ अर्थ-क्षीणमोह अर्थात् बारहवें गुणस्थानमें रहनेवाला मुनि तीनमेसे किसी एक योगको द्वारा एकद्रव्यका जो ध्यान करता है वह एकत्व नामका दूसरा शुक्लध्यान है ।। ४८ ॥
एकत्वशुक्लध्यानको विशेषता श्रुतं यतो वितर्कः स्यायतः पूर्वार्थशिक्षितः । एकत्वं ध्यायति ध्यानं सवितर्क ततो हि तत् ।।४९॥ अर्थव्यञ्जनयोगानां वीचारः संक्रमो मतः ।
वीचारस्य सद्भावादवीचारमिदं भवेत् ॥५०॥ अर्थ-कि वितर्कका अर्थ श्रुत है और चौदहपूर्वो में प्रतिपादित अर्थको शिक्षासे युक्त मुनि एकत्वका ध्यान करता है इसलिये यह ध्यान सवितर्क होता है । अर्थ, शन्द और योगोंका संक्रमण वीचार माना गया है। ऐसे दोचारका सद्भाव इस ध्यानमें नहीं रहता इसलिये यह अर्वीचार होता है ।। ४९-५० ॥
सूक्ष्मक्रियशुक्लध्यानका लक्षण अवितर्कमवीचारं मूक्ष्मकायावलम्बनम् । भूक्ष्मक्रियं भवेद् ध्यानं सर्वभावगतं हि तत् ॥५१॥ काययोगेऽतिमूक्ष्मे तद् वर्तमानो हि केवली ।
शुक्लं ध्यायति संगेद्ध काययोग तथाविधम् ।।५२॥ अर्थ—जो ध्यान वितर्क और वीचारसे रहित है तथा सूक्ष्मकाययोगके अवलम्बनसे होता है वह सूक्ष्मक्रिय नामका शुक्लध्यान है । यह समस्त पदार्थोको विषय करनेवाला है । अत्यन्त सूक्ष्म काययोगमें विद्यमान केवली भगवान उस प्रकारके काययोगको रोकनेके लिये इस शुक्लध्यानका ध्यान करते हैं ॥५१-५२|| .
व्युपरकिय शुक्लध्यानका लक्षण अवितर्कमवीचारं ध्यानं व्युपरतक्रियम् । परं निरुद्धयोग हि तच्छलेश्यमपश्चिमम् ॥५३॥