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तत्त्वार्यसार संस्थानविचय धर्मध्यानका लक्षण लोकसंस्थानपर्यायस्वभावस्य विचारणम् ।
लोकानुयोगमार्गेण संस्थानविचयो भवेत् ।।४३॥ अर्थ-लोकानुयोग-लोकका वर्णन करनेवाले शास्त्रोंके अनुसार लोकके आकार, पर्याय और स्वभावका जो विचार है यह संस्थानविचय नामका धर्म्यध्यान है॥ ४३ ॥
शुक्लथ्यानके चार भेद शुक्लं पृथक्त्वमाद्यं स्यादेकत्वं त द्वितीयकम् ।
सूक्ष्म क्रियं तृतीयं तु तुर्य व्युपरक्रियम् ॥४४॥ अर्थ-शुक्लध्यानके चार भेद हैं--यहला पृथक्त्व, दूसरा एकत्व, तीसरा सूक्ष्मक्रिया और चौथा व्युपरक्रिया ॥ ४४ ॥
पृथक्त्वशुक्लध्यानका लक्षण द्रव्याण्यनेकमेदानि योगैर्यायति यत्रिभिः ।
शान्तमोहस्ततो ह्येतत्पृथक्त्वमिति कीर्तितम् ॥४५|| अर्थशान्तमोह अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थानवी जीव, तीन योगोंके द्वारा अनेक भेदोंसे युक्त द्रव्योंका जो ध्यान करता है वह पृषकत्व नामका शुक्लथ्यान कहा गया है ॥ ४५ ॥
पृथक्त्वशुक्लध्यानको विशेषता श्रुतं यतो वितकः स्याद्यतः पूर्वार्थशिक्षितः । पृथक्त्वं ध्यायति ध्यानं सवितकं ततो हि तत् ॥४६।। अर्थव्यञ्जनयोगानां विचारः संक्रमो मतः ।
वीचारस्य हि सद्भावात् सवीचारमिदं भवेत् ॥४७॥ अर्थ--चूँकि वितर्फका अर्थ श्रुत है और चौदह पूर्वोमें प्रतिपादित अर्थको शिक्षासे युक्त मुनि इसका ध्यान करता है इसलिये यह ध्यान सवितर्क कहलाता है। अर्थ, शब्द और योगोंका संक्रमण परिवर्तन वीचार माना गया है। इस ध्यानमें उक्त लक्षणवाला वीचार रहता है। इसलिये यह ध्यान सवीचार होता है ॥ ४६-४७ ।।