Book Title: Tattvarthsar
Author(s): Amrutchandracharya, Pannalal Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 236
________________ षष्ठाधिकार वर्शनविनयका लक्षण भवेत् । यत्र निःशङ्कितवादिलक्षणोपेतता श्रद्धाने सप्त तच्चानां सम्यक्त्वविनयः स हि ॥ ३१ ॥ अर्थ- सप्त तत्वोंके श्रद्धानके विषयमें जहाँ निःशङ्कता आदि लक्षणोंसे सहितपना होता है वह सम्यक्त्वबिनय अथवा दर्शनविनय है ॥ ३१ ॥ ज्ञानविनयका लक्षण ज्ञानस्य ग्रहणाभ्यासस्मरणादीनि कुर्वतः । बहुमानादिभिः सार्द्ध ज्ञानस्य विनयो भवेत् ॥ ३२ ॥ १८३ अर्थ- जो मुनि बहुत सम्मान आदिके साथ ज्ञानका ग्रहण, अभ्यास तथा स्मरण आदि करता है उसके ज्ञानविनय होता है ।। ३२ ।। चारित्रविनयका लक्षण दर्शनज्ञानयुक्तस्य या समीहितचित्तता । चारित्रं प्रति जायेत चारित्रविनयो हि सः ॥ ३३ ॥ अर्थ - दर्शन – सम्यक्त्व और ज्ञानसे युक्त पुरुषको चारित्रके प्रति जो उत्सुकता है— चारित्र धारण करनेकी जो लगन है वह चारित्रविनय है ॥ ३३ ॥ उपचार विनयका लक्षण अभ्युत्थानानुगमनं चन्दनादीनि कुर्वतः । आचार्यादिषु पूज्येषु विनयो औपचारिकः || ३४ ॥ अर्थ – आचार्य आदि पूज्य पुरुषोंके विषय में अभ्युत्थान—– उनके आनेपर आगे जाकर ले आना, अनुगमन - जानेपर पीछे चलकर पहुँचाना तथा बन्दना - नमस्कार आदि करनेवाले मुनिके उपचार विनय होती है ॥ ३४ ॥ ध्यानके चार भेद आत्तं रौद्रं च धर्म्यं च शुक्लं चेति चतुर्विधम् । ध्यानमुक्तं परं तत्र तपोऽभयं भवेत् || ३५ ।। अर्थ- आर्त, रौद्र, धम्यं और शुक्ल के भेदसे ध्यान चार प्रकारका कहा गया है । इनमें अन्तके दो ध्यान तपके अङ्ग हैं || ३५ ॥

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