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पञ्चमाधिकार
१४३ परन्तु उस परिणमनमें आत्माको सकषाय दशा अर्थात् रागादिकभाव निमित्तकारण हैं। इसी तरह आत्माकी जो सकषाय दशा है उसका उपादानकारण आत्मा है और द्रव्यकर्मका उदय उसका निमित्तकारण है । आत्माके असंख्यात प्रदेश हैं एक-एक प्रदेशके साथ अनन्त-अनन्त कर्मपरमाणु लग रहे हैं और एक-एक कर्मपरमाणु के साथ अनन्त-अनन्त कार्मणवर्गणाके परमाणु लग रहे हैं। जब आत्मामें योग और कषायरूप परिणति होती है तब वे कार्मणवर्गणाके परमाणु प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप परिणत होकर बन्ध अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं तथा उन्हें कार्मणवर्गणाके बाद कर्मसंज्ञा प्राप्त हो जाती है। सामान्यरूपसे यह बन्धकी परम्परा अनादिकालसे चलो आ रही है तथा अभव्य जीव और दूरानुदूर भव्यके अनन्तकाल तक चली जावेगी । परन्तु भव्यजीवके समय पाकर नष्ट हो जावेगी, इसलिये आत्मा और कौका सम्बन्ध अभव्य तथा दूरानुदूर भन्यकी अपेक्षा अनादि अनन्त है, भव्य जीवकी अपेक्षा अनादि और सान्त है तथा विशिष्ट कर्मकी अपेक्षा सादि और सान्त है । आत्माके साथ जो कर्मोका सम्बन्ध होता है वह किसी एक स्थानके प्रदेशोंके साथ होता हो, ऐसी बात नहीं है किन्तु सर्वतः-समन्तात् सब ओरसे होता है।॥ १३ ॥
कर्म आत्माका गुण नहीं है न कर्मात्मगुणोऽमूर्तेस्तस्य बन्धाप्रसिद्धितः । ___ अनुग्रहोपघातौ हिं नामूर्तः कर्तुमर्हति ॥१४॥ अर्थ-कर्म, आत्माका गुण नहीं है क्योंकि आत्माका गुण होनेसे वह अमूर्तिक होता और अमूर्तिकका बन्ध नहीं हो पाता। अमूर्तिक कर्म, अमूर्तिक आत्माका अनुग्रह और निग्रह--उपकार और अपकार करने में समर्थ नहीं होता ॥ १४ ।।
कर्मोंका मूर्तिकपना किस तरह है ? । औदारिकादिकार्याणां कारणं कर्म मूर्तिमत् ।
न ह्यमूर्तेन मूर्तानामारम्भः क्वापि दृश्यते ॥१५॥ अर्थ-औदारिक आदि कार्योंका कारण जो कर्म है वह मूर्तिमान् है क्योंकि अमूर्तिमान् पदार्थके द्वारा मूर्तिमान् पदार्थोंका आरम्भ कहीं भी दिखाई नहीं देता। ___ भावार्थ---यद्यपि कर्म सूक्ष्म होनेके कारण दृष्टिगोचर नहीं होता तथापि वह मूर्तिक है क्योंकि उसका कार्य जो औदारिक आदि शरीर है वह मूर्तिक है। मूर्तिकको रचना मूर्तिसे ही हो सकती है इसलिये दृश्यमान औदारिकादि शरोरोंसे अदृश्यमान कर्ममें मूर्तिपना सिद्ध होता है ॥ १५ ॥