Book Title: Tattvarthsar
Author(s): Amrutchandracharya, Pannalal Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 207
________________ १५४ तस्वार्थसार __यश.कोति-जिसके उदयसे यशकी प्राप्ति हो उसे यशःकोति नामकर्म कहते हैं । अयशःकोलि-जिसके उदयसे अपयशकी प्राप्ति हो उसे अयशःकीति नामकर्म कहते हैं ! तीर्थकरत्व-जिसके उदयने अपहन्त अवस्थाको प्राप्ति होकर अष्ट प्रातिहार्यादि विभूति प्राप्त होती है उसे तीर्थकरत्व नामकर्म कहते हैं ॥३१-३९।। गोत्रकमको दो प्रकृतियाँ गोत्रकर्म द्विधा ज्ञेयमुच्चनीचविभेदतः। अर्थ---उच्च और नीचके भेदसे गोत्रकर्म दो प्रकारका जानना चाहिये। भावार्थ-जिसके उदयसे लोकमान्य एवं मोक्षमार्ग प्रचलनके योग्य कुलमें जन्म हो उसे उच्चगोत्र कर्म कहते हैं और जिसके उदयसे लोकनिन्द्य एवं मोक्षमार्ग प्रचलनके अयोग्य कुलमें जन्म हो उसे नौयगोत्र कर्म कहते हैं । ____ अन्तरायकर्मके पाँच भेद स्यादानलाभवीर्याणां परिभोगोपभोगयोः ॥४०॥ अन्तरायस्य वैचित्र्यादन्तरायोऽपि पञ्चधा । अर्थ-दान, लाभ, वीर्य, परिभोग और उपभोग सम्बन्धी अन्तरायकी विचित्रतासे अन्तरायकर्म भी पांच प्रकारका होता है। भावार्थ-जो दान में बाधा डाले उसे चानान्तराय, जो लाभमें बाधा डाले उसे लाभान्तराय, जो वीर्य में बाधा डाले उसे बीर्यान्तराय, जो परिभोग । उपभोग ) में बाधा डाले उसे परिभोगान्तराय और जो उपभोग ( भोग ) में बाधा डाले उसे उपभोगान्तराय कहते हैं। जो वस्तु एक बार भोगने में आती है उसे उपभोग तथा जो वस्तु बार-बार भोगने में आती है उसे परिभोग कहते हैं। लोकमें उपभोगके लिये भोग और परिभोगके लिये उपभोग शब्द प्रचलित हैं। पर तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामीने इनके लिये उपभोग और परिभोग शब्दोंका प्रयोग किया है तदनुसार इस ग्रन्थमें भी उन्हीं शब्दोंका प्रयोग हुआ है ॥४०॥ बन्ध योग्य प्रकृतियाँ द्वे त्यक्त्वा मोहनीयस्थ नाम्नः पविशतिस्तथा ॥४१॥ सर्वेषां कर्मणां शेषा बन्धप्रकृतयः स्मृताः । अबन्धा मिश्रसम्यक्त्वे बन्धसंघातयोदंश ॥४२॥

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