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पश्चमाधिकार अर्थ-उच्चगोत्र, शुभआयु, सातावेदनीय और शुभनामकर्म इस तरह व्यालीस पुण्यप्रकृतियां मानी गई हैं।
भावार्थ--साताबेदनीय, मरकायुको छोड़कर तीन शुभआयु, उच्चगोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिकादि पांच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, तीन अङ्गोपाङ्ग, वर्णादिक चारके बोस, समचतुरस्रसंस्थान, वचर्षभनाराचसंहनन, उपघातको छोड़कर अगुरुलघु आदि छह ( अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत ), प्रशस्तविहायोगति और अस आदि बारह ( अस, वादर, पर्याप्तक, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशस्कीति, निर्माण, तीर्थंकर ) ये अड़सठ मेदविवक्षामें और ब्यालीस अभेदविवक्षामें पुण्यप्रकृति कहलाती हैं ।। ५२ ॥
पापप्रकृतियों कौन कौन हैं ? नीचैर्गोत्रमसद्वेद्यं श्वभ्रायुनाम चाशुभम् ।
द्वथशीतिर्धातिभिः सार्धं पापप्रकृतयः स्मृताः ॥५३॥ अर्थ-नीचगोत्र, असातावेदनीय, नरकायु, अशुभनाम तथा घातियाकर्मोंकी सैंतालीस प्रकृतियाँ सब मिलाकर ब्यालीस पापप्रकृतियाँ मानी गई हैं । ___ भावार्थ-घातियाकर्मोंकी सैंतालीस प्रकृतियों ( ५ +९+ २८ + ५ - ४७ ), नीचगोत्र, असातावेदनोय, नरकायु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियादिक चार जातियाँ, समचतुरस्रको छोड़कर पाँच. संस्थान, बज्रर्षभनाराचसंहननको छोड़कर पाँच संहनन, अशुभवर्ण, रस, गन्ध
और स्पर्शके बीस ( अभेदविपक्षामें चार ) उपघात, अप्रशस्त बिहायोगति और स्थावरादिक दश ( स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति ) इसप्रकार ये बन्धकी अपेक्षा भेदविवक्षामें अंठानवे और अभेदविवक्षामें व्यासी तथा उदयकी अपेक्षा भेदविवक्षामें सौ और अभेदविवक्षामें चौरासी पापप्रकृतियाँ हैं। वर्णादिककी बीस प्रकृतियाँ पुण्य और पाप दोनों में सम्मिलित होती हैं क्योंकि एक ही वर्णादि किसीके लिये शुभरूप और किसीके लिये अशुभरूप होते हैं ॥ ५३ ॥
बन्धतश्वका उपसंहार इत्येतद्वन्धतत्त्वं यः श्रद्धत्ते वेन्युपेक्षते । शेषतत्वैः समं पड्मिः स हि निर्वाणभाग्भवेत् ।।५४॥