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तत्वार्थसार
हलाहलको उपमा देकर चार भागोंमें विभक्त किया नाया है ।। ४६ ।।
प्रदेशबन्धका स्वरूप घनाङ्गुलस्यासंख्येयभागक्षेत्रावगाहिनः ॥४७॥ एकद्विन्यायसंख्येय समयस्थितिकांस्तथा । उष्णरूक्षहिमस्निग्धान्सर्ववर्णरसान्वितान् ॥४८॥ सर्वकर्मप्रकृत्यान् सर्वेष्वपि भवेषु यत् । द्विविधान् पुद्गलस्कन्धान सूक्ष्मान् योगविशेषतः ।।४९।। सर्वेष्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशकान् ।
आत्मसारकुरुते जीवः स प्रदेशोऽभिधीयते ॥५०॥ अर्थ-जो धनाङ्गलके असंख्यातवें भागप्रमाण एक क्षेत्रमें स्थित हैं, जिनकी एक, दो, तीन आदि असंख्यात समयोंकी स्थिति है, जो उष्ण, रूक्ष, शीत और स्निग्ध स्पर्शसे सहित हैं, समस्त वर्गों और समस्त रसोंसे सहित हैं, समस्त कर्मप्रकृतियोंके योग्य है, पुण्य और पापके भेदसे दो प्रकारके हैं, सूक्ष्म हैं, समस्त भवोंमें जिनका बन्ध होता है तथा जो समस्त आत्मप्रदेशोंमें अनन्तानन्तप्रदेशोंको लिये हुए हैं ऐसे पुद्गलस्कन्धोंको-कार्मणवर्गणाके परमाणुसमूहको यह जीव जो अपने आधीन करता है वह प्रदेशबन्ध कहलाता है ॥ ४७-५० ।।
कर्मोमें पुण्य और पापकर्मका भेव शुभाशुभोपयोगात्यनिमित्तो द्विविधस्तथा ।
पुण्यपापतया द्वधा सर्व कर्म अभिद्यते ॥५१॥ अर्थ-शुभोपयोग और अशुभोपयोगके भेदसे निमित्त दो प्रकारका है। इसलिये निमित्तकी द्विविधतासे समस्त कर्म पुण्य और पापके भेदसे दो भेदोंमें विभक्त हो जाते हैं।
भावार्थ-शुभोपयोगरूप निमित्तसे जो कर्म बंधते हैं वे पुण्यकर्म तथा अशुभोपयोगरूप निमित्तसे जो कर्म बंधते हैं वे पापकर्म कहलाते हैं। इस प्रकार निमित्तकी अपेक्षा कर्मोके दो भेद हैं ।। ५१ ॥
पुण्यकर्म कौन कौन हैं ? उचैर्गोत्रं शुभाषि सद्वेद्यं शुभनाम च । द्विचत्वारिंशदित्येवं पुण्यप्रकृतयः स्मृताः ।।५२॥