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तत्त्वार्थसार
भावार्थ-मुनियोंके पास शरीर तथा पीछी, कमण्डलु और शास्त्ररूप उपकरण ही रहते हैं सो इनमें भी ममत्वभावका अभाव होना आकिञ्चन्य धर्मं हे ॥ २० ॥
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ब्रह्मचर्य धर्मका लक्षण
स्त्री संसक्तस्य
शय्यादेरनुभृताङ्गनास्मृतेः । तत्कथायाः श्रुतेश्च स्याद्ब्रह्मचर्यं हि वर्जनात् ||२१||
अर्थ — स्त्री से सम्बन्ध रखनेवाले शय्या आदिक पदार्थ, पूर्वकालमें भोगो हुई स्त्रीका स्मरण तथा स्त्रीसन्बन्धी कथाका सुनना इनके त्याग करनेसे ब्रह्मचर्य - धर्म होता है।
भाषार्थ — ब्रह्मचयं धर्मका निर्दोष पालन करनेके लिये ऐसे आसन आदिपर नहीं बैठना चाहिये जिसपर स्त्री बैठी हो, नुन स्त्रीका स्मरण नहीं करना चाहिये तथा स्त्रीसम्बन्धी कथा वार्ताको भी नहीं सुनना चाहिये ॥ २१ ॥ धर्मसे संवरकी सिद्धि
इति प्रवर्तमानस्य धर्मे भवति तद्विपक्षनिमित्तस्य कर्मणो नाखवे
संचरः ।
सति ||२२||
अर्थ - इस प्रकार धर्म में प्रवृति करनेवाले मुनिके अधर्म निमित्तक कर्मोंका आस्रव रुक जाता है इसलिये संबर होता है || २२ ॥
बाईस परिषहोंके नाम
क्षुत्पिपासा च शीतोष्णदंश मत्कुणनग्नते । अरतिः स्त्री च चर्या च निषद्या शयनं तथा ||२३|| आक्रोशश्च वधश्चैव याचनालाभयोर्द्वयम् । रोगश्च तृणसंस्पर्शस्तथा च मलधारणम् ॥ २४ ॥ असत्कार पुरस्कारं प्रज्ञाज्ञानमदर्शनम् । इति द्वाविंशतिः सम्यक सोढव्याः स्युः परीषदाः ||२५||
अर्थ-- क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमत्कुष्ण, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शयन, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्धा, मलधारण, असत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ये बाईस परिवह अच्छी तरह सहन करने योग्य हैं ।