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षष्ठाधिकार
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और उपभोगके मेदसे लोभ चार प्रकारका होता है उसका अभाव होना शौच धर्म कहलाता है ॥ १६ ॥
सत्यधर्मका लक्षण शानचारित्रशिक्षादौ स धर्मः सुनिगद्यते । धर्मोपबृंहणार्थं यत्साधु सत्यं तदुच्यते ॥१७॥
(षट्पदम् ) अर्थ-ज्ञान और चारित्रकी शिक्षा आदिके विषयमें धर्मवृद्धिके अभिप्रायसे जो निर्दोष वचन कहे जाते हैं वह सत्यधर्म कहलाता है ॥ १७ ।।
संयमधर्मका लक्षण इन्द्रियार्थेषु वैराग्यं प्राणिनां वघवर्जनम् ।
समिती वर्तमानस्य मुनेर्भवति संयमः ॥१८॥ अर्थ समितियोंका पालन करनेवाले मुनिका इन्द्रियविषयोंमें विरक्त होना तथा जीवोंके वधका त्याग करना संयमधर्म है।
भावार्थ-प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयमकी अपेक्षा संयमके दो भेद हैं। छह कायके जीवोंका घात नहीं करना प्राणिसंयम है और पांच इन्द्रियों तथा मनके विषयोसे विरक्त होना इन्द्रियसंयम है । यह संयम समितियोंका पालन करनेवाले मुनिके होता है ॥ १८ ॥
तपधर्मका लक्षण परं कर्मक्षयार्थ यत्तप्यते तत्तपः स्मृतम् । अर्थ-कर्मोका क्षय करनेके लिये जो तपा जावे वह तप कहलाता है।
त्यागधर्मका लक्षण त्यागस्तु धर्मशास्त्रादिविश्राणनमुदाहृतम् ॥१९|| अर्थ-धर्मशास्त्र आदिका देना त्यागधर्म कहा गया है ॥ १९ ॥
आकिञ्चन्यधर्मका लक्षण ममेदमित्युपात्तेषु शरीरादिषु केषुचित ।
अभिसन्धिनित्तिर्या तदाकिश्चन्यमुच्यते ॥२०॥ अर्थ-ग्रहण किये हुए शरीर आदि किन्हीं पदार्थोंमें 'यह मेरा है। इस प्रकारके अभिप्रायका जो अभाव है वह आकिञ्चन्यधर्म कहलाता है।