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तत्वार्थसार
अर्थ - वेदनीयको बारह मुहूर्त, नाम और गोत्रकी आठ मुहूर्त तथा शेष समस्त कर्मों की अन्तर्मुहूर्त जघन्यस्थिति है ।
भावार्थ — ऊपर मूल प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बताया गया है । परन्तु उत्तर प्रकृतियोक स्थितिबन्धमें विशेषता है जो कि इस प्रकार है—असाता वेदनीय एक और ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तरायकी उन्नीस सब मिलकर बोस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस कोड़ा कोड़ी सागरका है । सातावेदनीय, स्त्रीवेद, मनुष्यगति, और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन चार प्रकृतियोंका पन्द्रह कोड़ा कीड़ी सागर, दर्शनमोहनीयके भेदरूप मिथ्यात्व प्रकृतिका सत्तर कोड़ा कोड़ी सागर और चारित्रमोहनीयके भेदरूप सोलह कषायोंका चालीस कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है । हुण्डक संस्थान और असंप्राप्त पाटिका संहननका बीस कोड़ाकोड़ो सागर, वामनसंस्थान और कीलित संहननका अठारह कोड़ाकोड़ी सागर, कुब्जसंस्थान और सोल्ह कोड़ाकोड़ीसागर, स्वातिसंस्थान और नाराच संहननका चौदह कोड़ाकोड़ी सागर, न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान और वज्रनाराच संहननका बारह कोड़ाकोड़ी सागर तथा समचतुरस्रसंस्थान और वज्रर्षभनाराच संहननका दश कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति और सूक्ष्म, अपर्याप्त तथा साधारण इन छह प्रकृतियोंका अठारह कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है । अरति, शोक, नपुंसक वेद तथा तियंञ्च, भय, नरक, तेजस और औदारिक इन पाँचका जोड़ा, वैक्रियिक और आतप इन दोका जोड़ा, नीचगोत्र तथा श्रसवर्ण और अगुरुलघु इन तीनकी चौकड़ी, एकेन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय, स्थावर, निर्माण, अप्रशस्त विहायोगति, और अस्थिर आदि छह इन इकतालीस प्रकृतियोंका बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है । हास्य, रति, उच्चगोत्र, पुरुषवेद, स्थिर आदिक छह प्रशस्त विहायोगति और देवगति देवयानुपूर्वी इन तेरह प्रकृतियोंका दश कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है | आहारक शरीर, आहारक शरीराङ्गोपाङ्ग और तीर्थंकर प्रकृति इन तीनों का अन्तः कोड़ाकोड़ी अर्थात् कोड़िसे ऊपर और कोड़ाकोड़ीसे नीचे सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बन्ध है । देवायु और नरकायुका तेत्तीससागर, मनुष्यायु तथा नियंगायुका तीन पल्य प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बन्ध है। किस जीवके कितनी स्थितिका बन्ध होता है आदि विषय गोम्मटसारादि ग्रन्थोंसे जानना चाहिये ।। ४५ ।।
अनुभवबन्धका लक्षण
विपाकः प्रागुपात्तानां यः शुभाशुभकर्मणाम् ॥४६॥