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तत्त्वार्थसार मूर्तिककर्मके साथ आत्माका बन्ध किस प्रकार होता है इसका समाधान
न च बन्धाप्रसिद्धिः स्यान्मृतः कर्मभिरात्मनः । अमृतरित्यनेकान्तात्तस्य मूर्तित्वसिद्धितः ।।१६।। अनादिनित्यसम्बन्धात्सह कर्मभिरात्मनः । अमूर्तस्यापि सत्यैक्ये मूर्तत्वमवसीयते ॥१७॥ बन्धं प्रति भवत्यैक्यमन्योन्यानुपवेशतः । युगपद् द्रावितस्वर्णरौप्यवज्जीवकर्मणोः ॥१८॥ तथा च मूर्तिमानात्मा सुराभिभवदर्शनात् । न अमूर्तस्य नमसो मदिरा मदकारिणी ॥१९॥ गुणस्य गुणिनश्चैव न च वन्धः प्रसज्यते ।
निर्मुक्तस्य गुणत्यागे वस्तुत्वानुपपत्तितः ॥२०॥ अर्थ-अमुर्तिक आत्माका मूर्तिक कर्मोंके साथ बन्ध असिद्ध नहीं है क्योंकि अनेकान्तसे आत्मामे मतिकपना सिद्ध हैं। कांके साथ अनादिकालीन नित्य सम्बन्ध होनेसे आत्मा और कर्मोमें एकत्व हो रहा है इसी एकत्वके कारण अमूर्तिक आत्मामें भी मूर्तिकपना माना जाता है। जिस प्रकार एक साथ पिधलाये हुए सुवर्ण और चाँदीका एक पिण्ड बनाये जानेपर परस्पर प्रदेशोंके मिलनेसे दोनोंमें एकरूपता मालूम होती है उसी प्रकार बन्धको अपेक्षा जीव और कर्मों के प्रदेशोंके परस्पर मिलनेसे दोनों में एकरूपता मालूम होती है। आत्माके मूर्तिक ‘मानने में एक युक्ति यह भी है कि उसपर मदिराका प्रभाव देखा जाता है इसलिये आत्मा मूर्तिक है क्योंकि मदिरा अमूर्तिक आकाशमें मदको उत्पन्न नहीं करती। कर्मको यदि आत्माका गुण माना जावे तो आत्मा गुणी कलावेगा और गुण तथा गुणीका बन्ध होता नहीं है। इस तरह आत्माका कर्मके साथ बन्ध नहीं हो सकेगा। मोक्ष अवस्थामें आत्मा कर्मसे निर्मुक्त होता है इसका अर्थ यह होगा कि आत्मा अपने ही गुणसे निर्मुक्त हो गया, इस दशामें आत्माका आत्मपना ही नष्ट हो जायगा क्योंकि गुणके अस्तित्वसे ही वस्तुका अस्तित्व रहता है गुणके नष्ट हो जानेपर वस्तुका वस्तुत्व नहीं रहता।
भावार्थ-निश्चय नयसे आत्मा और कर्म दोनों द्रव्य स्वतन्त्र स्वतन्त्र द्रव्य हैं इसलिये इनमें बन्ध नहीं है परन्तु व्यवहार नयसे कर्मक अस्तित्व कालमें
(. बंधं पडि एमत्त लक्खणदो हवा तस्स णाणसं ।
सम्हा अमुत्तिभावोऽयंतो होइ जीवस्स ।।