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तत्त्वार्थसार
सहेतरैः ।
सुस्वरं सुभगादेयं यशःकीर्तिः तथा तीर्थकरत्वं च नामप्रकृतयः स्मृताः ||३९||
अर्थ-चार गतियाँ, पाँच जातियाँ, पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान, स्वातिसंस्थान, कुञ्जकसंस्थान, वामनसंस्थान और हुण्डकसंस्थान के भेदसे छह प्रकारका संस्थान वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्द्धनाराच कीलक और असंप्राप्तस्पाटिकाके भेदसे छह प्रकारका संहनन कर्कश, मृदु, लघु, गुरु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्णके भेदसे आठ प्रकारका स्पर्श, मधुर, अम्ल, कटुक, तिक्त और कषायके भेदसे पाँच प्रकारका रस, शुक्ल आदि के भेदसे पाँच प्रकारका बर्णं सुगन्ध दुर्गन्ध के भेदसे दो प्रकारका गन्ध; नरकगत्यानुपूर्वी आदिके भेदसे चार प्रकारका आनुपूर्वी उपघात, परघात, अगुरुलघु, उच्छ्वास, आतप, उद्योत प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, उस, स्थावर पर्याप्तक, अपर्याप्तक, बादर, सूक्ष्म, शुभ, अशुभ, स्थिर, अस्थिर, सुस्वर, दुःस्वर, सुभग, दुभंग, आदेय, अनादेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति और तीर्थंकरत्व ये नामकर्मको तेरानचे प्रकृतियाँ हैं ।
भावार्थ - इन प्रकृतियोंके लक्षण इस प्रकार है
गति - जिस कर्म के उदयसे जीव नरक, तिर्यञ्च मनुष्य या देव अवस्थाको प्राप्त होता है उसे गतिनामकर्म कहते हैं इसके नरकगति आदि चार भेद हैं ।
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जाति - जिस कर्म के उदयसे जीव एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय इन पाँच जातियों में उत्पन्न हो उसे जातिनामकर्म कहते हैं । इसके एकेन्द्रिय जाति आदि पांच भेद हैं ।
शरीर - जिस कर्म के उदयसे औदारिक, बेक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण इन शरीरोंको रचनाके योग्य परमाणुओंकी प्राप्ति हो उसे शरीरनामकर्म कहते हैं इसके औदारिक शरीर आदि पाँच भेद हैं ।
अङ्गोपाङ्ग - जिस कर्मके उदयसे अङ्गों तथा उनके अवयवभूत उपाङ्गों की रचना हो उसे अङ्गोपाङ्गनामकर्म कहते हैं। इसके औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, वैकिक शरीराङ्गोपाङ्गके भेदसे तीन भेद है । इनके लक्षण स्पष्ट हैं ।
निर्माण -- जिसके उदयसे अङ्गोपाङ्गोंकी रचना यथास्थान तथा यथाप्रमाण हो उसे निर्माणनामकर्म कहते हैं ।
बन्धन - जिस कर्मके उदयसे औदारिक आदि शरीरोके परमाणु परस्पर बन्धको प्राप्त हो उसे बन्धननामकर्म कहते हैं । इसके औदारिक बन्धन आदि पांच भेद है ।