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पञ्चमाधिकार
१४५ आत्मा स्वतन्त्र नहीं है इसलिये दोनोंमें बन्ध माना जाता है। व्यवहारनयसे आत्मा और कर्मों में एकताका अनुभव होता है इसलिये आत्माको मूर्तिक माना जाता है। मूर्तिक आत्माका मूर्तिक कर्मों के साथ बन्ध होनेमें आपत्ति नहीं है ।। १६-२०॥
बन्द नार भेद प्रकृतिस्थितिबन्धौ द्वौ बन्धश्चानुभवाभिधः ।
तथा प्रदेशवन्धश्च ज्ञेयो बन्धश्चतुर्विधः ।।२१।। अर्थ-प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेशबन्धके भेदसे बन्ध चार प्रकारका जानना चाहिये। ___ भावार्थ-ज्ञानावरणादि कर्मोके स्वभावको प्रकृतिबन्ध कहते हैं । अस्तित्वके तारतम्यको स्थितिवन्ध कहते हैं। फलशक्तिकी हीनाधिकताको अनुभव या अनुभागबन्ध कहते हैं तथा कमोके प्रदेशोंकी हीनाधिकताको प्रदेशबन्ध कहते हैं । इन चार प्रकारके बन्धोंमें प्रकृति और प्रदेशबन्ध योगके निमित्तसे होते हैं और स्थिति तथा अनुभवबन्ध कषायके निमित्तसे होते हैं । यहाँ मिथ्यात्व, अविरति और प्रमादको कषायके अन्तर्गत किया गया है। प्रारम्भसे लेकर दशम गुणस्थान तक चारों बन्ध होते हैं । उसके बाद ग्यारहवें गुणस्थानसे लेकर तेरहवें गुणस्थान तक मात्र प्रकृति और प्रदेशबन्ध होते हैं। चौदहवें गुणस्थानमें कोई बन्ध नहीं होता ।। २१ ।।
कर्मोको पाठ मूलप्रकृतियों ज्ञानदर्शनयो रोधौ वेद्यं मोहायुषी तथा ।
नामगोत्रान्तरायाश्च मूलप्रकृतयः स्मृताः ॥२२॥ अर्थ-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ मूलप्रकृतियाँ मानी गई हैं।
भावार्थ-प्रकृतिबन्धके मूलमें उपर्युक्त आठ भेद हैं इनके लक्षण इस प्रकार हैं
जो आत्माके ज्ञानगुणको प्रकट न होने दे उसे ज्ञानावरण कहते हैं। जो दर्शनगुणको आवृत करे उसे वर्शनावरण कहते हैं। जो सुख-दुःखका कारण हो उसे वेदनीय कहते हैं। जिसके उदयसे जीव अपने स्वरूपको भुलकर परपदार्थोमें अहंवार तथा ममकार करे उसे मोहनीय कहते हैं । जिसके उदयसे जीव नरकादि योनियोंमें परतन्त्र हो उसे आयुकर्म कहते हैं । जिसके उदयसे शरीरादिको रचना