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पचमाधिकार
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भी सामान्यरूपसे दर्शनगुणका घात करती हैं इसलिये उन्हें भी दर्शनावरण कर्मकी प्रकृतियों में शामिल किया गया है। दोनों मिलाकर दर्शनावरणको नौ प्रकृतियाँ होती हैं । चक्षुदर्शनावरण आदिके लक्षण नामसे ही स्पष्ट हैं शेष पाँच निद्राओंके लक्षण इस प्रकार हैं
निद्रा---मद, खेद तथा थकावटको दूर करनेके लिये जो सोया जाता है वह निद्रा है ।
निद्रानिद्रा - निद्राको गहरी अवस्थाको निद्रानिद्रा कहते हैं । प्रचला -- जिससे बैठे-बैठे ऑंख मित्र जावे उसे प्रचला कहते हैं । प्रचलाप्रचला — प्रचलाकी जो तीव्ररूपता है उसे प्रचलाप्रचला कहते हैं इस निद्रा में मुखसे लार बहने लगती है तथा भङ्गोपाङ्ग चलने लगते हैं।
स्त्यानगृद्धि – जिसके उदयसे आत्मा सोते समय भयंकर कार्य कर ले परन्तु जागने पर उनका स्मरण न रहे उसे स्त्यानगृद्धि कहते हैं ।। २५-२६ || dattaकर्मको दो प्रकृतियाँ
द्विधा वैद्यसद्वेद्यं सद्वेद्यं च प्रकीर्तितम् |
अर्थ - असद्वेद्य और सद्वेद्यको अपेक्षा वेदनीयकर्म की दो प्रकृतियाँ हैं। जिसके उदयसे यह जीव देवादि गतियों में प्राप्त सामग्री में सुखका अनुभव करे उसे सद्वेद्य कहते हैं और जिसके उदयसे नरकादि गतियोंमें प्राप्त सामग्री में दुःखका अनुभव करे उसे असद्वेद्य कहते हैं ।
मोहनीय कर्मको अट्ठाईस प्रकृतियाँ
त्रयः सम्यक्त्वमिथ्यात्व सम्यग्भिध्यात्वभेदतः ॥ २७ ॥ क्रोधो मानस्तथा माया लोभोऽनन्तानुबन्धिनः । तथा त एवं चाप्रत्याख्यानावरणसंज्ञिकाः ||२८|| प्रत्याख्यान रुश्चैव तथा संज्वलनाभिधाः | हास्यं रत्परती शोको भयं सह जुगुप्सया ||२९|| नारी पुंषण्ढवेदाश्च मोहप्रकृतयः स्मृताः ।
अर्थ - मोहनीयकर्मको मूलमें २ प्रकृतियां हैं - १ दर्शनमोहनीय और २ चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैं-१ मिथ्यात्वप्रकृति, २ सम्यacaप्रकृति और ३ सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति | चारित्रमोहनीयके भी कषायवेदनीय और नोकषाय वेदनीयको अपेक्षा दो भेद है । कषायवेदनीयके अनन्तानुबन्धी क्रोध मान-माया लोभ अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान-माया-लोभ;