________________
तरवार्थसार केवली कहलाता है । इस गुणस्थानमें जीव कम-से-कम अन्तर्मुहुर्त और अधिक-सेअधिक आठ वर्ष अन्तर्मुहर्त कम एक करोड़ वर्ष पूर्व रहता है। इस गुणस्थानके
में जटा सा सूफा कारणोग रह जाता है तब शुक्लध्यानके तीसरे पायेके प्रभावसे क्रमप्रकृतियोंकी बहुत भारी निर्जरा होती है । उसके बाद जब सूक्ष्मकाययोग भी नष्ट हो जाता है तब अयोगकेवली नामक चौदहा गुणस्थानमें प्रवेश होता है। इस गुणस्थानका काल 'अ इ उ ऋ तृ' इन पांच लघु अक्षरोके उच्चारणकालके बराबर है। यहाँ शुक्लध्यानका चौथा पाया प्रकट होता हैउसके प्रभावसे समस्त कर्मप्रकृतियोंका क्षयकर जीत्र मोक्षको प्राप्त होता है ।। २९ ।।
चौदह जीवस्थान-जीवसमासोंका वर्णन एकाक्षाः वादराः सूक्ष्मा द्वयक्षाया विकलास्त्रयः । संजिनोऽसंज्ञिनश्चैव द्विधा पञ्चेन्द्रियास्तथा !॥३०॥ पर्याप्ताः सर्व एते सर्वेऽपर्याप्तकास्तथा 1
जीवस्थानविकल्पाः स्युरिति सर्वे चतुर्दश ॥३१।। अर्थ—एकेन्द्रियोंके दो भेद बादर और सुक्ष्म, द्वीन्द्रियको आदि लेकर तीन विकल और संज्ञी-असंज्ञीके भेदसे दो प्रकारके पञ्चेन्द्रिय ये सात प्रकारके सभी जीव पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक दोनों प्रकारके होते हैं। इसलिये सब मिलाकर जीवस्थानके चौदह विकल्प होते हैं। इन्हें चौदह जीवसमास भी कहते हैं ।
भावार्थ-जिनके द्वारा अनेक जीव और उनकी अनेक जातियाँ जानी जावें उन्हें जीवस्थान या जीवसमास कहते हैं। इन जीवसमासोंका आमममें अनेक प्रकारसे वर्णन किया गया है। इनके ५७ भेद भी बताये गये हैं जो इस प्रकार है-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, नित्यनिमोद और इतर निगोदके बादर-सूक्ष्मकी अपेक्षा छह युगल तथा सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येककी अपेक्षा एक युगल, इन सात युगलोंके चौदह भेदोंमें द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी पञ्चेन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रियके भेदसे सोंके पांच भेद मिलानेसे उन्नीस स्थान होते हैं। इन उन्नीस स्थानोंके पर्याप्तक, नित्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तकको अपेक्षा तीन-तीन भेद होनेसे कुल सत्तावन भेद होते हैं। कहींपर ९८ भेद भी बताये गये हैं जो इस प्रकार हैं-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, नित्यनिगोद और इतरनिगोदके बादर-सूक्ष्मकी अपेक्षा छह युगल और सप्रतिष्ठित प्रत्येक तथा अप्रतिष्ठित प्रत्येक इन सात युगलोंके चौदह भेद पर्याप्तक, निवृत्त्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तकके भेदसे तोन-तीन प्रकारके होते हैं, इसलिये एकेन्द्रियोंके