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तत्त्वार्थसार भावार्थ-व्रतोके एकदेश भङ्ग करनेको अतिचार कहते हैं। यह अतिचार प्रमाद या अज्ञानदशामें कदाचित् लगते हैं। बुद्धिपूर्वक बार-बार अतिचार लगानेसे बतभङ्ग हो जाता है ।। ८३ ।।
सम्यक्रवके पांच अतिवार शङ्कनं काक्षणं चैव तथा च विचिकित्सनम् ।
प्रशंसा परदृष्टीनां संस्तवश्चेति पञ्च ते ॥८॥ अर्थ-शङ्का-सूक्ष्म अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंमें शङ्का करना अथवा सप्त भयरूप प्रवृत्ति करना, काङ्क्षा-सांसारिक फलोंकी इच्छा करना, विचिकित्सा-धर्मात्माजनोंके मलिन शरीरमें ग्लानि करना, परदृष्टिप्रशंसाअन्य मिथ्यादृष्टियोंको मनमें अच्छा समझना और परदृष्टिसंस्तव-अन्य मिथ्यादृष्टियोंको वचन द्वारा स्तुति करना ये पाँच सम्यक्त्वके अतिचार हैं ॥८४ ।।
अहिंसाणुव्रतके पांच अतिचार बन्धी वधस्तथा छेदो गुरुभाराधिरोपणम् ।
अन्नपाननिषेधश्च प्रत्येया इति पञ्च ते ॥८॥ अर्थ- बन्ध–स्रोटे अभिप्रायसे किसी जीव-जन्तुको रस्सी आदिसे बाँधना, वध--लायो, चाबुवा आदिसे किसीको पीटना, छेद-नाक, कान, मूंछ आदि अंगोंका छेदना, 'गुरुभारारोपण--शत्तिसे अधिक भार लादना और अन्नपाननिरोध-समय पर आहार-पानी नहीं देना अथवा अल्पमात्रामें देना ये पाँच अहिंसाणुयतके अतिचार हैं ॥ ८५ ॥
सत्याणुव्रतके पाँच अतिधार कूटलेखो रहोभ्याख्या न्यासापहरणं तथा ।
मिथ्योपदेशसाकारमन्त्रभेदौ च पञ्च ते ॥४६॥ अर्थ-कूटलेख–बनावटी लेख लिखना, रहोण्याख्या-स्त्री-पुरुषको एकान्त चेष्टाको उनकी हँसी उड़ानेकी भावनासे प्रकट करना, न्यासापहरणधरोहरको हड्प करनेवाले वचन कहना, मिथ्योपवेश--आगमके शब्दोंका अन्यथा व्याख्यान करना और साकारमन्त्रभेद–किसी चेष्टासे दुसरेको गुप्त मन्त्रणाको जानकर प्रकट कर देना ये पाँच सत्याणुव्रतके अतिचार हैं ।। ८६ ।।
अचौर्थाणुव्रतके पाँच अतिचार स्तेनाहतस्य ग्रहणं तथा स्तेनप्रयोजनम् । व्यवहारः प्रतिच्छन्दैर्मानोन्मानोनपद्धता ॥८७।।
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