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चतुर्थाधिकार
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इतना अवश्य है कि सम्यग्दृष्टि - ज्ञानी जीव पुण्यकार्यों को करता हुआ भी उन्हें सर्वथा उपादेय नहीं मानता। जो भाव, आस्त्रव और बन्धके कारण हैं उन्हें संसारका कारण मानता है और भाव, संवर तथा निर्जराके कारण हैं उन्हें मोक्षका कारण मानता है ।। १०४ ॥
आनयतस्त्रको जाननेका फल
वैश्यपेक्षते ।
इतीsaarवं यः श्रहने शेषतः समं षभिः स हि निर्वाणमाग्भवेत् ॥ १०५ ॥
अर्थ – इस तरह शेष छह तत्त्वोंके साथ जो आस्रव तत्त्वकी श्रद्धा करता है, उसे जागता है तथा उसकी उपेक्षा करता है वह निश्चयसे निर्वाणको प्राप्त होता है ॥ १०५ ॥
इस प्रकार श्री अमृतचन्द्राचार्य द्वारा विरचित तत्त्वार्थसार में आम्रवतत्वका वर्णन करनेवाला चतुर्थ अधिकार पूर्ण हुआ ।