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तस्वार्थसार अविग्रहकसमया कथितेषु गतिर्जिनः । अन्या द्विसमया प्रोक्ता पाणिमुक्तकविग्रहा ||१००|| द्विविग्रहां त्रिसमयां प्राहुर्लाङ्गलिकां जिनाः । गोमूत्रिका तु समयैश्चतुर्भिः स्यान्त्रिविग्रहा ।।१०१।। समयं पाणिमुक्ताया मन्यस्यां समयद्वयम् |
तथा गोमूत्रिकायां त्रीननाहारक इष्यते ॥१०२|| अर्थ-निश्चयसे विग्रहका अर्थ शरीर है। जिसका पूर्व शरीर नष्ट हो गया है ऐसे जीवकी नवीन शरीरके लिये जो गति ( गमन ) होती है वह विग्रहगति मानी गई है । जिनेन्द्र भगवान्ने विग्रहगतिमें जीवके कार्मण काययोग कहा है । यह कार्मण काययो शरीरको शामिला नवीन फर्म प्रहाका कारण है। मत्यु होने पर जीवोंका जो अन्य भवमें गमन होता है तथा मुक्त जीवोंका जो ऊर्ध्वगमन होता है उन दोनोंमें जीवोंकी गति श्रेणीके अनुसार ही होती है। सबिनहा-मोड़ सहित और अविग्रहा-मोड़ रहितके भेद से वह विग्रहगति दो प्रकारकी होती है । मुक्त जीवकी गति अविग्रहा--मोड़ रहित हो होती है। शेष जीवोंको गतिका कोई नियम नहीं है अर्थात् उनको गति दोनों प्रकारको होती है । जिस गतिमें विग्रह-मोड़ नहीं होता उसमें एक समय लगता है तथा जिनेन्द्र भगवान्ने उसका इषुगति नाम कहा है । जिसमें एक मोड़ लेना पड़ता है उसमें दो समय लगते हैं तथा इसका पाणिमुक्ता नाम है। जिसमें दो मोड़ लेना पड़ते हैं उसमें तीन समय लगते हैं तथा उसे जिनेन्द्र भगवान् लाङ्गलिकागति कहते हैं । जिसमें तीन मोड़ लेना पड़ते हैं उसमें चार समय लगते हैं और उसे गोमूत्रिका कहते हैं। पाणिमुक्तागतिमें जीव एक समय तक, लाङ्गलिकागतिमें दो समय तक और गोमूत्रिकागतिमें तीन समय तक अनाहारक रहता है। इषुगतिमें जीव अनाहारक नहीं होता ॥ ९६-१०२ ।।
जन्मके भेव और उनके स्वामी त्रिविघं जन्म जीवानां सर्वः परिभाषितम् । सम्मूर्च्छनात्तथा गर्भादुपषादात्तथैव च ॥१०३।। भवन्ति गर्भजन्मानः पोताण्डजजरायुजाः । तथोपपादजन्मानो नारकास्त्रिदिवौकसः ।।१०४|| स्यः सम्मुर्छनजन्मानः परिशिष्टास्तथापरे ।
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