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तस्वार्थसार
निर्गताः खलु पञ्चम्या लभन्ते केचन व्रतम् | प्रयान्ति न पुनर्मुक्ति भावसंक्लेशयोगतः ॥१५॥ लभन्ते निति केचिच्चतुर्थ्या निर्गताः क्षितेः । न पुनः प्राप्नुवन्त्येव पवित्रां तीर्थकताम् ॥१५१।। लभन्ते तीर्थकर्तृत्वं ततोऽन्याभ्यो विनिर्गताः ।
निर्गत्य नरकान्न स्युर्चलकेशवचक्रिणः ॥१५२॥ अर्थ-सातवीं पृथिवीसे निकले हुए नारकी मनुष्यपर्याय प्राप्त नहीं करते । वे तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होकर फिरसे नरक जाते हैं । मध्वी नामक छठवीं पृधिबीसे निकले हुए नारकी मनुष्य तो होते हैं पर वे पवित्र संयमको प्राप्त नहीं होते. यह निश्चय है । पाँचकों पृथिवीसे निकले हुए कोई नारका मुनिव्रत तो धारण कर लेते हैं परन्तु भावोंकी संक्लेशताके कारण मुक्तिको प्राप्त नहीं होते | चौथी पृथिवीसे निकले हुए कितने ही नारकी मुक्ति तो प्राप्त कर लेते हैं परन्तु पवित्र तीर्थंकरका पद प्राप्त नहीं करते हैं। इनके सिवाय अन्य पृथिवियोंसे अर्थात् पहली, दूसरी और तीसरी पृथिवीसे निकले हुए नारकी तीर्थकर पद प्राप्त कर सकते हैं। नरकसे निकल कर नारकी बलभद्र, नारायण और चक्रवर्ती नहीं होते ॥ १४८-१५२ ।।
___ किसका जन्म कहाँ होता है ? सर्वेऽपर्याप्तका जीवाः सूक्ष्मकायाश्च तैजसाः । वायवोऽसंजिनश्चेषां न तिर्यग्भ्यो विनिर्गमः ॥१५३।। त्रयाणां खलु कायानां विकलानामसंजिनाम् । मानवानां तिरश्चां वाऽविरुद्धः संक्रमो मिथः ॥१५४॥ नारकाणां सुराणां च विरुद्धः संक्रमो मिथः । नारको न हि देवः स्यान देवो नारको भवेत् ॥१५५।। भूम्यापः स्थूलपर्याप्ताः प्रत्येकाशवनस्पतिः । तिर्यग्मानुषदेवानां जन्मेषां परिकीर्तितम् ॥१५६।। सर्वेऽपि तेजसा जीवाः सर्वे चानिलकायिकाः । मनुजेषु न जायन्ते ध्रुवं जन्मन्यनन्तरे ॥१५७।।