________________
९२
तस्वार्थसार
द्रव्यका लक्षण समुत्पादव्ययधौव्यलक्षणं क्षीणकल्मषाः ।
गुणपर्ययवद्र्व्यं वदन्ति जिनपुङ्गवाः ॥५॥ अर्थ-वीतराग जिनेन्द्र भगबान, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त अथवा गुण और पर्यायोंसे युक्त पदार्थको द्रव्य कहते हैं ॥ ५॥
उत्पावका लक्षण द्रव्यस्य स्यात्समुत्पादश्चेतनस्येतरस्य च ।
भावान्तरपरिप्राप्तिर्निजां जातिमनुजातः ।।६।। अर्थ-अपनी जातिको नहीं छोड़ते हुए चेतन तथा अचेतन द्रव्यको जो अन्य पर्यायकी प्राप्ति होती है वह उत्पाद कहलाता है ।। ६ ।।
व्ययका लक्षण स्वजातरावरीधेन द्रव्यस्य विविधस्य हि ।
विगमः पूर्वभावस्य व्यय इत्यभिधीयते ॥७॥ अर्थ-अपनी जातिका विरोध न करते हुए चेतन अचेतन द्रव्यको पूर्व पर्यायका जो नाश है वह व्यय कहलाता है ।1 ७ ॥
प्रोग्यका लक्षण समुत्पादव्ययाभावो यो हि द्रव्यस्य दृश्यते ।
अनादिना स्वभावेन तद् ध्रौव्यं त्रुबत्ते जिनाः ||८|| अर्थ-अनादि स्वभावके कारण द्रव्यमें जो उत्पाद और व्ययका अभाव है उसे जिनेन्द्रभगवान् घीव्य कहते हैं ।। ८ ।।
गुण और पर्यायका लक्षण गुणो द्रव्यविधानं स्थात् पर्यायो द्रव्यविक्रिया।
द्रव्यं ह्ययुतसिद्ध स्यात्समुदायस्तयोर्द्वयोः ॥९॥ अर्थ-द्रव्यको जो विशेषता है उसे गुण कहते हैं और द्रध्यका जो बिकार है वह पर्याय कहलाता है। द्रव्य उन दोनों गुणपर्यायोंका अपृथक् सिद्ध समुदाय है ।।९।।