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चतुर्थाधिकार
१२३ विपरीत कारण, ये सर्वज्ञ भगवानके द्वारा उच्चगोत्रकर्मके आस्रव कहे गये है ।। ५४ ।।
अन्तरायकर्मक आस्रवके हेतु तपस्विगुरुचैत्यानां पूजालोयप्रवर्तनम् । अनाथदीनकृपणभिक्षादिप्रतिषेधनम् ॥५५॥ वधबन्धनिरोधैश्च नासिकाच्छेदकर्तनम् । प्रमादाद्देवतादत्तनैवेद्यग्रहणं तथा ॥५६॥ निरबद्योपकरणपरित्यागो षधोऽङ्गिनाम् । दानभोगोपभोगादिप्रत्यूहकरणं तथा ॥५७|| ज्ञानस्य प्रतिषेधश्च धर्मविश्नकृतिस्तथा ।
इत्येवमन्तराग्य भवन्यास बहवः ।। अर्थ-तपस्वी, गुरु और प्रतिमाओंकी पूजा न करनेकी प्रवृत्ति चलाना, अनाथ, दोन तथा कृपण मनुष्योंको भिक्षा आदि देनेका निषेध करना, वधबन्धन तथा अन्य प्रकारको रुकावटोंके साथ पशुओंकी नासिका आदिका छेद करना, देवताओंको चढ़ाये हुए नैवेद्यका प्रमादसे ग्रहण करना, निर्दोष उपकरणोंका परित्याग करना { जिन पीछी या कमण्डल आदि उपकरणों में कोई खराबी नहीं आई है उन्हें छोड़कर नये ग्रहण करना ), जीवोंका घात करना, दान-भोग-उपभोग आदिमें विध्न करना, ज्ञानका प्रतिषेध करना-स्वाध्याय या पठन-पाठनका निषेध करना, तथा धर्मकार्यो में विश्न करना ये सब अन्तरायकर्मके आस्रवके हेतु हैं ।। ५५-५८॥
व्रत और अनतके निरूपणको प्रतिज्ञा व्रतात् किलासवेत्पुण्यं पापं तु पुनरवतात् ।
संक्षिप्यास्त्रवमित्येवं चिन्त्यतेऽतो बतायतम् ।।५।। अर्थ-व्रतसे पुण्यकर्मका और अवत्तसे पापकर्मका आस्रव होता है इसलिये पूर्वोक्त आस्नवको संक्षिप्तकर अब आगे व्रत और अव्रतका विचार किया जाता है ।। ५९ ।।
वतका लक्षण हिंसाया अनृताच्चैव स्तेयादब्रह्मतस्तथा । परिग्रहाच्च विरतिः कथयन्ति व्रतं जिनाः ॥६॥