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चतुर्थाधिकार
१२९ अर्थ-माया निदान और मिथ्यात्य इन तीन शल्योंके अभावसे विशिष्ट होता हुआ जो अहिंसा आदि प्रतोंसे सहित है वह व्रती कहलाता है। ___ भावार्थ-जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच व्रतोंसे सहित है वह व्रती कहलाता है। ब्रती मनुष्यको माया, निदान' और मिथ्यात्व इन तीन शल्पोंसे रहित ही होना चाहिये। भोतरको निर्बलताको छिपानेके लिये कितने ही मनुष्य भीतर कुछ हैं और बाह्यमें कुछ आचरण करते हैं। ऐसे मनुष्योंको कांटेकी तरह यह चुभती रहती है कि कोई हमारी भीतरको निर्बलताको जान न जावे। यही माया शल्य है। प्रती मनुष्यको इस शल्यसे रहित होना चाहिये । भीतर जिस व्रतको धारण करने की शक्ति है उसी व्रतको धारण करना चाहिये तथा भीतर बाहर एक-सा आचरण रखना चाहिये। किसी फलकी अभिलाषा रखना निदान कहलाता है। जो मनुष्य किसी सांसारिक फलकी अभिलाषा रखकर चत धारण करता है वह उस सांसारिक फल की प्राप्तिमें विलम्ब देख व्रतकी श्रद्धासे च्युत हो जाता है और वेगार समझकर ग्लानिपूर्वक व्रतका आचरण करता है। इसलिये 'पाप हेय हैं। इतना ही अभिप्राय रखकर पापका त्याग करते हुए व्रत धारण करना चाहिये । विपरीत श्रद्धाको मिथ्यात्व कहते हैं। कूदेव, कुशास्त्र और कूगरकी श्रद्धारूप स्थूल मिथ्यात्व तो नतीके होता ही नहीं है परन्तु कितने ही व्रती शुभोपयोगरूप व्रतको संवर और निर्जराका कारण मानते हैं जब कि वह शुभास्रवका कारण है । उनकी यह विपरीत श्रद्धा उन्हें मिथ्यात्वरूप शल्यसे युक्त बनाये रखती है। व्रती मनुष्यको शुभोपयोगको भूमिकामें शुभोपयोगका आचरण करते हुए भी उसे मोक्षका साक्षात् कारण नहीं मानना चाहिये ।। ७८ ।।
प्रतीके भेव अनगारस्तथागारी स द्विधा परिकथ्यते ।
महाव्रतोऽनगारः स्यादगारी स्यादणुव्रतः ॥७९।। अर्थ-अनगार और अगारीके भेदसे वह व्रती दो प्रकारका कहा जाता है। महाव्रतका धारी अनगार कहलाता है और अणुव्रतका धारक अगारी कहा जाता है ।। ७९ ॥
बारह व्रतोंके नाम दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरतिः समता तथा । सप्रोषधोपवासश्च संख्या भोगोपभोगयोः ॥८॥