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चतुर्थाधिकार
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झूठी गवाही देना, चुगली करना, चित्तका अस्थिर रखना, विषके प्रयोग, ईंट पकाना तथा दावाग्नि-वन में आग लगानेकी प्रवृत्ति चलाना, मन्दिर सम्बन्धी उद्यानके भवनका विनाश करना, प्रतिमाको चढ़ाने योग्य गन्ध, माला तथा धूप आदिकी चोरी करना, अत्यन्त तीव्र कषाय करना, पाप कार्योंसे जीविका करना, कठोर और असह्य वचन बोलना तथा सौभाग्यवृद्धिके लिये वशीकरण आदि उपायोंको मिलाना ये सब अशुभ नामकर्मके आस्रवके हेतु हैं ।। ४४-४७ ॥ शुभनामकर्मके अस्त्र के हेतु
तथा ।
संसारभीरुता नित्यमविसंवादनं योगानां चार्जवं नाम्नः शुभावहेतवः || ४८ ||
अर्थ — निरन्तर संसारसे भयभीत रहना, सहधर्मीजनोंके साथ विसंवादविरोध नहीं करना और योगोंकी सरलता रखना ये शुभनामकर्मके आलवके हेतु हैं ॥ ४८ ॥
तीर्थंकर नामकर्मके आस्त्र बके हेतु विशुद्धि दर्शनस्योच्चैस्तपस्त्यागौ च शक्तितः । मार्गप्रभावना चैव सम्पत्तिर्विनयस्य च ॥४९॥ शीलवतानती चारो नित्यं संवेगशीलता । ज्ञानोपयुक्तताभीक्ष्णं समाधिश्च तपस्विनः || ५० ॥ वैयावृच्यमनिर्हाणिः षड्विधावश्यकस्य च । भक्तिः प्रवचनाचार्यजिन प्रवचनेषु च ॥ ५१ ॥ वात्सल्यं च प्रवचने घोडशैते यथोदिताः । arretatioरत्वस्य भवन्त्यासहेतवः ||५२॥
अर्थ — सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्ट विशुद्धता, शक्तिके अनुसार किये हुए तप और त्याग, मार्गप्रभावना, विनयसंपन्नता, शील और व्रतोंमें अतिचार नहीं लगाना, निरन्तर संसार सम्बन्धी दुःखोंसे भयभीत रहना, निरन्तर ज्ञानमय उपयोग रखना, साधुसमाधि — मुनियोंके तपश्चरण में बाधा आनेपर उसे दूर करना, वैयावृत्त्य, छह आवश्यकोंके करनेमें न्यूनता नहीं करना, प्रवचनभक्ति, आचार्यभक्ति, अर्हद्भक्ति, बहुश्रुतभक्ति, और प्रवचनवात्सल्य - सहधर्मीजनों के साथ स्नेहभाव रखना ये सालह, तीर्थंकर नामकर्मके आस्रवके कारण हैं ।
भावार्थ -- ऊपर तीर्थंकर नामकर्मके आस्रव के जो सोलह हेतु बतलाये गये १६