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तृवीयाधिकार जीवोंका उपकार परस्पर एक दूसरेका उपकार करना है और काल-द्रव्यका उपकार वर्तना-द्रव्योको वर्ताना है ।। ३०-३२ ।।
बद्रश्यका लक्षण क्रियापरिणतानां य: स्वयमेव क्रियावताम् । आदधाति सहायत्वं स धर्मः परिगीयते ॥३३॥ जीवानां पुद्गलानां च कर्तव्ये गत्युपग्रहे ।
जलवन्मत्स्यगमने धर्मः साधारणाश्रयः ॥३४॥ अर्ध-स्वयं क्रियारूप परिणमन करनेवाले क्रियावान्—जीव और पुद्गलोंको जो सहायता देता है बह धर्मद्रव्य कहलाता है। जिस प्रकार मछलीके चलने में जल साधारण निमित्त हैं उसी प्रकार जीव और पुद्गलोंके चलने में धर्मद्रव्य साधारण निमित्त है ॥ ३३-३४ ।।
अधर्मनल्यका लक्षण स्थित्या परिणतानां तु सचिवत्वं दधाति यः । तमधर्म जिनाः प्रादुर्निरावरणदर्शनाः ॥३५।। जीवानां पुद्गलानां च कर्तव्ये स्थित्युपग्रहे ।
साधारणाश्रयोऽधर्मः पृथिवीव गवां स्थितौ ॥३६।। अर्थ-स्थितिरूप परिणमन करनेवाले जीव और पुद्गलोंके लिये जो सहायता देता है उसे प्रत्यक्षज्ञानी जिनेन्द्र भगवान अधर्मद्रव्य कहते हैं। जिस प्रकार गायोंके ठहरनेम पथिवी साधारण निमित्त है। उसी प्रकार स्वयं ठहरते हुए जीव और पुद्गलोंके लिये अधर्म द्रव्य साधारण निमित्त है। यहाँ साधारण निमित्तका अभिप्राय यह है कि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य प्रेरक निमित्त नहीं हैं॥३६-३६ ॥
आकाशद्रष्यका लक्षण आकाशन्तेऽत्र द्रव्याणि स्वयमाकाशतेऽथवा । द्रव्याणामवकाशं वा करोत्याकाशमस्त्यतः ।।३७॥ जीवानां पुद्गलानां च कालस्याधर्मधर्मयोः ।
अवगाहनहेतुत्वं तदिदं प्रतिपद्यते ॥३८॥ अर्थ-जिसमें सब द्रव्य अवकाशको प्राप्त हैं, अथवा जो स्वयं अवकाशरूप