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तस्वार्थसार हो, अथवा जो सब द्रव्योंको अवकाश देता है उसे आकाश कहते हैं। यह आकाश जोव, पुद्गल, काल, धर्म और अधर्म द्रव्योंके अवगाहनमें हेतुपनेको प्राप्त होता है अर्थात् उन्हें अवगाहन में सहायता करता है ।। ३७-३८ ॥
धर्म, अधर्म और आकाश स्वयं निक्रिय होकर भी क्रिया हेतु हैं क्रियाहेतुत्वमेतेषां निष्क्रियाणां न हीयते ।
यतः खलु बलाधानमात्रमत्र विवक्षितम् ॥३९॥ अर्थ-ये धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य स्वयं निष्क्रिय हैं फिर भी गति, स्थिति और अवगाहनमें हेतु पड़ते हैं इसमें बाधा नहीं आती, क्योंकि यहाँपर इन द्रव्योंमें बलाधान मात्रकी विवक्षा है अर्थात् गति, स्थिति तथा अवगाहरूप परिणमन पदार्थ स्वयं करते हैं, धर्मादिद्रव्य उनमें सिर्फ सहायता करते हैं। तात्पर्य यह है कि गति, स्थिति आदिके उपादान कारण जीव और पुद्गल स्वयं हैं, धर्मादिद्रव्य उनमें निमित्तकारण पड़ते हैं ॥ ३९ ॥
कालव्यका लक्षण स कालो यन्निमिसाः स्युः परिणामादिवृत्तयः ।
वर्तनांलक्षणं तस्य कथयन्ति विपश्चितः ॥४०॥ अर्थ---काल वह कहलाता है जिसके निमित्तसे परिणाम, क्रिया, परस्त्र तथा अपरत्व होते हैं । विद्वान् लोग वर्तनाको कालका लक्षण कहते हैं ॥ ४० ।।
वर्तनाका लक्षण अन्तींकसमया प्रतिद्रव्यविपर्ययम् ।
अनुभूतिः स्वसत्तायाः स्मृता सा खलु वर्तना ॥४१॥ अर्थ-प्रत्येक द्रव्यके एक-एक समयवर्ती परिणमनमें जो स्वसत्ताको अनुभूति होती है उसे वर्तना कहते हैं ॥४१||
___कालव्यको हेतुकताका वर्णन आत्मना वर्तमानानां द्रव्याणां निजपर्ययैः ।
वर्तनाकरणात्कालो भजते हेतुकर्तृताम् ।।४२॥ अर्थ-सब द्रव्ये, अपनी-अपनी पर्यायोंरूप परिणमन स्वयं करती हैं फिर भी वर्तनाका करण होनेसे काल द्रव्य हेतुकर्तृताको प्राप्त होता है। __भावार्थ-यद्यपि अपने-अपने परिणमनका उपादान कारण सब द्रव्य स्वयं हैं तथापि कालद्रव्य उसमें सहायक होनेसे हेतुकर्ता कहलाता है ॥ ४२ ॥