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चतुर्थ अधिकार ( आस्रवतत्त्ववर्णनम् )
मङ्गलाचरण और प्रतिज्ञा अनन्तकेवलज्योतिःप्रकाशितजगत्त्रयान् ।
प्रणिपत्य जिनान् सर्वानासवः परिचक्ष्यते ॥१॥ अर्थ-जिन्होंने अनन्त केवलज्ञानरूपी ज्योतिके द्वारा तीनों जगत्को प्रकाशित किया है उन समस्त अरहन्तोंको नमस्कारकर आस्रवका कथन किया जाता है ॥१॥
आस्लवका लक्षण कायवाङ्मनसां कर्म स्मृतो योगः स आस्रवः । शुभः पुण्यस्य विज्ञेयो विपरीतश्च पाप्मनः ।।२।। सरसः सलिलावाहिद्वारमत्र जनैर्यथा । तदास्त्रवणहेतुत्वादानवो व्ययदिश्यते ॥३॥ आत्मनोऽपि तथैवैषा जिनोगप्रणालिका ।
कर्मास्रवस्य हेतुत्वादास्रवो व्यपदिश्यते ।।४।। अर्थ-काय, वचन और मनकी जो क्रिया है वह योग कहलाती है। जो योग है वहीं आस्रव है। शुभ और अशुभके भेदसे योगके दो भेद हैं | शुभयोग पुण्य कर्मका आस्रव है और अशुभ योग पाप कर्मका आस्रव है। जिस प्रकार तालाबमें पानी लानेवाला द्वार पानी आनेका कारण होनेसे मनुष्योंके द्वारा आस्रव कहा जाता है उसी प्रकार आत्माकी यह योगरूप प्रणाली भी कर्मास्रवका हेतु होने से जिनेन्द्रभगवानके द्वारा आस्रव कही जाती है ।। २-४ ॥
आस्रवके सांपरायिक और ईर्यापथ भेद जन्तवः सकषाया ये कर्म ते साम्परायिकम् । अजेयन्त्युपशान्ताया ईर्यापथमथापरे ॥५॥