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तस्वार्थसार भावार्थ-क्रोधादि चार कषायों, स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों, हिंसा, झूठ आदि पाँच अव्रतों तथा सम्यक्त्व क्रिया आदि पच्चीस क्रियाओंके द्वारा साम्परायिक आस्रव होता है । यहाँ पच्चीस क्रियाओंका स्वरूप लिखते हैं
(१) सम्यक्त्व क्रिया--चैत्य, मुई और शास्त्रको पूजा आदिरूप सम्यक्त्वको बढ़ाने वाली क्रिया सम्यक्त्व क्रिया है।
(२) मिथ्यात्व क्रिया-अन्य देवताओंको नमस्कारादिरूप मिथ्यात्वको बढ़ानेवाली क्रिया मिथ्यात्व क्रिया है। . (३) प्रयोग क्रिया-शरीर आदिके द्वारा गमनागमनादि रूप प्रवृत्ति करना प्रयोग किया है।
(४) समावान क्रिया--संयमी जीवका फिरसे असंयमकी ओर सम्मुख होना समादान क्रिया है।
(५) ईयर्यापथ क्रिया-पिथकी कारणभूत क्रिया ईपिथ क्रिया है।
(६) प्रादोषिकी क्रिया-क्रोधके आवेशसे होनेवाली क्रिया प्रादोषिकी क्रिया है।
(१७) कायिको क्रिया-दुष्टभाव युक्त होकर उद्यम करना कायिकी क्रिया है।
(८) आधिकरणिकी 'क्रिया–हिंसाके उपकरण आदिको उठाना आधिकरणिकी क्रिया है।
(९) पारितापिकी क्रिया-ऐसे शब्दादि कहना जिससे दूसरेको संताप हो पारितापिको क्रिया है।
(१०) प्राणातिपातिको क्रिया-प्राणघातरूप प्रवृत्ति करना प्राणातिपातिकी क्रिया है।
(११) वर्शन क्रिया-रागसे आर्द्र चित्त हो स्त्री आदिके रमणीयरूपको देखनेका अभिप्राय होना दर्शन क्रिया है।
{१२) स्पर्शन शिया---प्रमादके वशीभूत होकर स्त्री आदिके स्पर्श करनेका भाव होना स्पर्शन क्रिया है ।
(१३) प्रात्ययिकी क्रिया-नये नये अधिकरणोंसे स्त्री आदिके हृदयमें अपने ऊपर प्रत्यय-विश्वास उत्पन्न करना प्रात्ययिकी क्रिया है।
(१४) समन्तानुपात ब्रिन्या--स्त्री-पुरुषोंके आने-जाने आदिके स्थानमें मलोत्सर्ग करना समन्तानुपात क्रिया है।
(१५) अनाभोग क्रिया-बिना देखी, विना शोधो हुई भूमिपर शरीरादिको रखना-उठना बैठना आदि अनाभोग क्रिया है।
(१६। स्वहस्त क्रिया-दूसरेफे द्वारा करने योग्य कार्यको लोभके वशीभूत होकर स्वयं करना स्वहस्त क्रिया है !