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चतुर्थाधिकार
भाषार्थ -- दुःख आदि लक्षण इस प्रकार हैं---
दुःख पीडारूप परिणामको दुःख कहते हैं ।
शोक -- उपकारी जनोंका सम्बन्ध विच्छेद हो जानेपर जो विकलता होती हैं उसे शोक कहते हैं ।
वध - - आयु, इन्द्रिय तथा बल आदि प्राणोंका वियोग करना वध कहलाता है ।
ताप - निन्दा आदिके निमित्तसे जो पश्चात्ताप होता है उसे ताप कहते हैं। क्रन्वन -- अश्रुपात करते हुए रोना कन्दन कहलाता है |
परिवेदन - इस प्रकार विलाप करना जिससे दूसरोंको दया उत्पन्न हो जाये परिदेवन कहलाता है ।
यद्यपि ये सब दुःखके हो भेद हैं इसलिये एक दुःखके ग्रहण से सबका ग्रहण हो जाता है तथापि दुःखको जातियाँ बतलानेके लिए पृथक् पृथक् ग्रहण किया गया है ।। २०-२४ ।।
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सातावेदनीयके आस्त्रयके हेतु
दया दानं तपः शीलं सत्यं शौचं दमः क्षमा | वैयावृत्यं विनीतिश्च जिनपूजार्जचं तथा ॥ २५ ॥
सरागसंयमश्चैव
संयमासंयमस्तथा ।
भूतत्रत्यनुकम्पा
च सद्वेद्यास्रवहेतवः ॥ २६॥
अर्थ - दया, दान, तप, शील, सत्य, शौच, इन्द्रियदमन, क्षमा, वैयावृत्य, विनय, जिनपूजा, सरलता, सरागसंयम, संयमासंयम भूतानुकम्पा और व्रत्यनुकम्पा ये सातावेदनीयके आस्रवके हेतु हैं ।। २५-२६ ।।
दर्शनमोहनीयके आवके हेतु
केवलिश्रुतसंघानां धर्मस्य त्रिदिवौकसाम् । अवर्णवादग्रहणं तथा तीर्थकृतामपि ||२७|| मार्गसंदूषणं चैव तथैवोन्मार्गदेशनम् । इति दर्शन मोहस्य भवन्त्याय हेतवः ||२८||
अर्थ - केवली, श्रुत, संघ, धर्म, देव तथा तीर्थंकरोंका भी अवर्णवाद करना, मार्ग में दोष लगाना तथा उन्मार्ग – मिथ्यामार्गका उपदेश देना ये दर्शनमोहके आसवके हेतु हैं 1