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तृतीयाधिकार
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और मेघ आदिमें जो अपने आप क्रिया होती है उसे वैस्रसिकी क्रिया कहते हैं। यह क्रिया यद्यपि जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें होती है अतः उन्हींका परिणमन है परन्तु उस परिणमनमें जो क्रम है वह कालद्रव्यकृत है इसलिये क्रियाको कालद्रव्यका कार्य बतलाया है । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि क्रिया तो धर्मद्रव्यका कार्य है न कि कालद्रव्यका । उसका उत्तर यह है कि एक स्थानसे अन्य स्थानकी प्राप्तिरूप जो क्रिया है वह धर्मद्रव्यका कार्य है परन्तु उस क्रियामें जो क्रमबद्धता है वह कालका कार्य है ॥ ४७ ॥३
परत्य और अपरश्वका लक्षण
परत्वं
विप्रकृष्टत्वमितरत्सन्निकृष्टता । ते च कालकृते ग्राह्ये कालप्रकरणादिह || ४८ ॥
अर्थ- दूरीको परत्व और निकटताको भाव कहते है। कहाँ कद्रव्यका प्रकरण होनेसे दूरी और निकटता कालकृत ही ग्रहण करना चाहिये ।
भावार्थ- जम्बूद्वीपसे घातकीखण्ड द्वीप निकट है और नन्दीश्वर द्वीप दूर है इसलिये धातकीखण्ड द्वीप अपर है तथा नन्दीश्वर द्वीप पर है। इस प्रकार क्षेत्रकृत परत्व अपरत्व भी होते हैं । परन्तु उनकी यहाँ विवक्षा नहीं है । यहाँ कालद्रव्यका प्रकरण होनेसे कालकृत परत्व और अपरत्वको लिया गया है । जैसे यज्ञदत्त बीस वर्षका है, और जिनदत्त पन्द्रह वर्षका है । यहाँ जिनदत्तको अपेक्षा यज्ञदत्तमें परत्व है और जिनदत्तमें अपरत्व है । यज्ञदत्त बड़ा कहा जाता है और जिनदत्त छोटा । यह व्यवहार कालद्रव्यकृत है ॥ ४८ ॥
व्यवहारकालका विभाग मनुष्यक्षेत्र में होता है
ज्योतिर्गति परिच्छिन्नो मनुष्यक्षेत्रवर्त्यौ । यतो न हि बहिस्तस्माज्ज्योतिषां गतिरिष्यते ॥ ४९ ॥
अर्थ – ज्योतिष्क देवोंको गतिसे विभक्त होनेवाला यह व्यवहारकाल मनुष्यक्षेत्र में ही होता है क्योंकि उससे बाहर ज्योतिष्क देवोंमें गति नहीं मानी जाती है ।
भावार्थ - घड़ी, घंटा, दिन, पक्ष, माह, वर्ष आदिका व्यवहार सूर्य की गति से होता है । सूर्यको गति मनुष्यक्षेत्र में हो होती है । इसलिए घड़ी, घंटा आदिका व्यवहार भी मनुष्यक्षेत्र में ही माना जाता है । मनुष्यक्षेत्रके आगे असंख्यात द्वीप, समुद्रों तथा स्वर्ग नरक आदिमें कालद्रव्यकृत जो परिणमन है उसमें घड़ी, घंटा आदिका व्यवहार नहीं होता है । देवों तथा नारकियों आदिकी आयुका