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तस्वार्थसार ध्यवहारकालके परिचायक लिङ्ग व्यावहारिककालस्य परिणामस्तथा क्रिया ।
परत्वं चापरत्वं च लिङ्गान्याहुमहर्षयः ॥४५॥ __ अर्थ-परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्वको मर्पियोंने व्यावहारिक कालका लिङ्ग-परिचायक चिह्न कहा है।
भावार्थ-कालद्रव्य अरूपी द्रव्य है अतः उसका बोध पुद्गलद्रव्यके माध्यमसे होता है। पुद्गल द्रव्यमें परिणाम, क्रिया तथा परत्व और अपरत्वका जो व्यवहार होता है वह मूर्तिक होनेके कारण सबको दृष्टिमें आता है इसलिये आचार्योने इन्हींके द्वारा व्यवहारकालका बोध कराया है । यह परिणाम तथा क्रिया आदिरूप परिणमन वास्तवमें पुद्गलद्रव्यका है परन्तु उसमें कालद्रव्य निमित्त होता है इसलिये परिणाम आदिको कालद्रव्यका लिङ्ग बतलाया गया है ।।४५॥
परिणामका लक्षण स्वजातेरविरोधेन विकारो यो हि वस्तुनः ।
परिणामः स निर्दिष्टोऽपरिस्पन्दात्मको जिनैः ॥४६॥ अर्थ-अपनी जातिका विरोध न करते हुए वस्तुका जो विकार है-परिणमन है उसे जिनेन्द्र भगवान्ने परिणाम कहा है। यह परिणाम हलन-चलनरूप नहीं होता।
भावार्थ-जो पदार्थ जिस रूप है उसका उसी रूप जो परिणमम होता है वह परिणाम कहलाता है | इस परिणाममें हलन-बलनरूप क्रियाकी विवक्षा नहीं है। उसका वर्णन पृथक् किया जाता है। वास्तवमें क्रियारूप परिणमन जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें ही होता है परन्तु परिणामरूप परिणमन सभी द्रव्योंमें होता है ।। ४६ ।।
क्रियाका लक्षण प्रयोगविलसाम्यां या निमित्ताभ्यां प्रजायते ।
द्रव्यस्य सा परिक्षेया परिस्पन्दात्मिका क्रिया ॥४७॥ अर्थ-प्रेरणा और स्वभाव इन दो निमित्तोंसे द्रव्यमें जो हलन-चलनरूप परिणति होती है उसे क्रिया जानना चाहिये ।
भावार्थ-क्रियाके दो भेद हैं-१ प्रायोगिकी और २ वैस्रासिकी । मनुष्यादिके प्रयत्नसे रेल, मोटर आदिमें जो क्रिया होती है उसे प्रायोगिकी क्रिया कहते हैं