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द्वितीयाधिकार कालव्यको हेतुकताका समर्थन न चास्य हेतुकर्तृत्त्वं निःक्रियस्य विरुध्यते ।
यतो निमित्तमात्रेऽपि हेतुकत्त्वमिष्यते ॥४३॥ अर्थ यद्यपि कालद्रव्य स्वयं निष्क्रिय है तथापि इसकी हेतुकर्तृता विरुद्ध नहीं है क्योंकि निमित्तमात्रमें भी हेतुकर्तृता मानी जाती है।
भावार्थ-जिस प्रकार 'कारीषोऽग्निरध्यापयति' कण्डेको आग पढ़ाती है, यहाँ अग्नि स्वयं निष्क्रिय होकर भी गढ़ानेमें निमित्त मानी जाती है उसी प्रकार कालद्रव्य स्वयं निष्क्रिय होकर भी पदार्थोके परिणमनमें निमित्त हेतुकर्ता माना जाता है । ४३ ।।
कालाणु किस प्रकार कहाँ स्थित हैं ? एकैकवृत्या प्रत्येकमणवस्तस्य निष्क्रियाः ।
लोकाकाशप्रदेशेषु रत्नसशिरिष स्थिताः ।।४४।। अर्थ-उस काल द्रश्यके क्रियारहित प्रत्येक अणु रत्नोंकी राशिके समान लोकाकाशके प्रदेशोंपर एक-एक कर स्थित हैं।
भावार्थ- कालद्रव्य एकप्रदेशी है इसलिये उसे अणुरूप कहा जाता है । उन अणुरूप कालद्रव्योंकी संख्या असंख्यात है। आगममें लोकाकाशके प्रदेशोंकी संख्या भी असंख्यात बतलाई गई है। इस तरह लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर एक-एक कालद्रव्य अवस्थित है, यह बात स्वयं सिद्ध हो जाती है। इसके लिये रत्नराशिका दृष्टान्त दिया जाता है। जिस प्रकार राशिमें स्थित रत्न एक दूसरे रत्नोंसे स्पृष्ट होनेपर भी स्वतन्त्र हैं उसी प्रकार कालद्रव्य भी परस्पर एक दूसरे कालद्रव्यसे स्पृष्ट होनेपर भी स्वतन्त्र हैं। कालाणुको स्वतन्त्र इसलिये कहा जाता है कि वह जितना भी है उतना अपना कार्य करने में समर्थ रहता है उसके लिये दुसरे कालद्रव्यकी सहायता अपेक्षित नहीं रहती। मनुष्यके हाथमें पांच अगुलियाँ हैं परन्तु भोजनका ग्रास उठानेमें पाँचों अंगुलियो एक-एक कर समर्थ नहीं है उसके लिये पाँचों अंगुलियोंका मिलना आवश्यक रहता है इसलिये हाथ अवयवी है और अंगुलियाँ अवयव कहलाती हैं । अवयवोका एक अवयव कार्य करनेमें असमर्थ रहता है। यह बात कालद्रव्यमें नहीं है क्योंकि वह अपना कार्य करने में अलग रहकर भी समर्थ है। यही कारण है कि कालद्रव्यको बहुप्रदेशी नहीं माना गया है ।। ४४ ॥