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तरमा मन पदार्थनवकात्मत्वानवधा दशधा तु सः । दशजीवभिदात्मत्त्वादिति चिन्त्यं यथागमम् ॥२३७।।
(षट्पदम् ) अर्थ-सामान्यकी अपेक्षा जीव एक प्रकारका है, बद्ध और मुक्तकी अपेक्षा दो प्रकारका है, असिद्ध, नोसिद्ध-जीवन्मुक्त—अरहंत और सिद्धकी अपेक्षा तीन प्रकारका है, नारकी, तिर्यच, मनुष्य और देवके भेदसे चार प्रकारका है, उपशम, क्षय, क्षयोपशम, परिणाम और उदयसे होनेवाले भाबोंसे पञ्चरूप होनेके कारण पाँच प्रकारका है, चार दिशाओं और ऊपर, नीचे इस तरह छह दिशाओंमें गमन करनेके कारण छह प्रकारका है, स्यादस्ति, स्यात् नास्ति, स्यादस्ति नास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्तिवक्तव्य, स्याद्नास्तिअवक्तव्य और स्यादस्तिनास्तिअवक्तव्य इन सात भङ्गरूप होनेसे सात प्रकारका है, ज्ञानादि आठगुणोंसे तन्मय होनेके कारण आठ प्रकारका है, जीव, अजीब, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन नौ पदार्थरूप होनेसे नौ प्रकारका है तथा जीवसमासके प्रकरणमें कहे गये दश भेदरूप होनेसे दश प्रकारका है । इस तरह आगमके अनुसार और भी भेदोंका विचार किया जा सकता है ।। २३४-२३७ ॥
जीवतत्त्वको श्रद्धा आविसे मोक्षकी प्राप्तिका वर्णन इत्येतज्जीवतवं यः श्रद्धत्ते वेत्युपेक्षते ।
शेषतत्वैः समं पद्भिः म हि निर्वाणभाग्भवेत् ॥२३८॥ अर्थ-इस तरह शेष छह तत्त्वोंके साथ जो जीवतत्त्वकी श्रद्धा करता है, उसे जानता है और उससे उपेक्षा कर चारित्र धारण करता है वह निश्चयसे निर्वाणको प्राप्त होता है ।। २३८ ॥
इस तरह श्रीअमृतचन्द्राचार्य द्वारा विरचित तत्वार्थसारमें जीवतत्त्वका
वर्णन करनेवाला दूसरा अधिकार पूर्ण हुआ ।