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द्वितीयाषिकार इत्यादि है। इन सोलह स्वर्गोके ५२ पटल हैं। उनके आगे कपर-ऊपर नौ ग्रेवेयकोंके नौ पा , उपके अपर नौ अनुशिका एक गटर है और उसके ऊपर पांच अनुत्तर विमानोंका एक पटल है। इन सबके मिलाकर अंशठ पटल हैं-उनमें इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और विप्रकीर्णकके भेदसे तीन प्रकारके विमान हैं। बीचके इन्द्रक विमान कहलाते हैं, उनके उत्तर, दक्षिण और पूर्व, पश्चिममें पंक्तिबद्ध विमान श्रेणीबद्ध कहलाते हैं और उनके बीचमें प्रक्षिप्त पुष्पोंके समान स्थित विमान प्रकीर्णक कहलाते हैं। पूर्व भवमें जो जीव जैसा कर्म करते हैं उसीके अनुसार वे इन विमानोंमें उत्पन्न होते हैं। सामान्यरूपसे कल्पोपपन्न और कल्पनातीत देवोंको वैमानिक देव कहते हैं। इन वैमानिक देवोंको कान्ति, लेश्याकी विशुद्धता, आयु, इन्द्रिय तथा अबधिज्ञानका विषय, सुख और प्रभाव ऊपर-ऊपर अधिक होता जाता है तथा अभिमान, गति, देह और परिग्रह ऊपर-ऊपर कम होता जाता है। नीचेके स्वर्गामें रहनेवाले देवोंको जितना अभिमान है उपरितन स्वर्गाके देवोंका अभिमान उससे कम होता जाता है। गति भी उत्तरोत्तर कम होती जाती है, यहाँ तक कि सोलह स्वर्गके आगेके देव अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र गमन नहीं करते । शरीरको ऊंचाई भी ऊपरऊपर कम होती जाती है। देवोंकी आयु और शरीरकी अवगाहनाका वर्णन पहले आ चुका है। परिग्रह भी उत्तरोत्तर कम होता जाता है। यह समस्त लोक संसारी जीवोंका क्षेत्र कहलाता है । सिद्ध जीवोंका क्षेत्र ऊर्ध्वलोकके अन्तमें है अर्थात् लोकान्तमें तीन कोशका धनोदधिवातवलय, दो कोशका घनवातवलय
और पन्द्रहसौ पचहत्तर धनुषका तनुवातवलय है। इस तनुवात वलयके अन्तिम पाँचसौ पच्चीस योजनका क्षेत्र सिद्धक्षेत्र कहलाता है। इसीमें सिद्धोंका निवास है ॥ २२५-२३३ ॥
जीवोंके भेद सामान्यादेकधा जीवो बद्धो मुक्तस्ततो द्विधा । स एवासिद्धनोसिद्धसिद्धत्वात् कीय॑ते त्रिधा ॥२३४॥ श्वाभ्रतियंग्नरोमर्त्य विकल्पात् स चतुर्विधः । प्रशमक्षयतद्वन्द्वपरिणामोदयोद्भवात् ।।२३५।। भावात्पञ्चविधत्वात् स पञ्चभेदः प्ररूप्यते । षड़मार्गगमनात्योढा सप्तधा सप्तभङ्गतः ॥२३६।। अष्टधाष्टगुणात्मत्वादष्टकर्मवृतोऽपि च ।