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विसीयाधिकार हैं उनमें भवनवासी देव रहते हैं। रत्नप्रभा पृथिवीके मध्यभागमें उपरितन भागमें और मध्यमलोकके नाना स्थानोंमें व्यन्तर देव निवास करते हैं । पृथिवीसे ऊपर चलकर आकाशमें ज्योतिष्क निवास करते हैं। ये ज्योतिष्क देव समस्त मध्यम लोकके आकाशको व्याप्तकर स्थित हैं।
भावार्थ-पहली रत्नप्रभा पृथिवीके खरभाग, पङ्कबहुलभाग और अब्बहुलभागके भेदसे जो तीन भाग हैं उनमें तीसरे अब्बहुलभागमें प्रथम नरककी रचना है। दूसरे पकबहुल भागमें असुरकुमार भवनवासियोंके भवन हैं तथा खर भागमें ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर शेष नो भवनवासियोंका निवास है। इस जम्बूद्वीपसे असंख्यात द्वीप-समुद्रोंका उल्लंघनकर रत्नप्रभा पृथिवीके खरभागमें राक्षसोंको छोड़कर शेष सात प्रकारके व्यन्तरोंका निवास है और पशबहुलभागमें राक्षसोंका निवास है। इसके सिवाय मध्यमलोकमें भी नाना स्थानोंपर व्यन्तरोका निवास है। मानुषोत्तर पर्वतके आगे और स्वयंभुरमण द्वीपके मध्यमें स्थित स्वयंप्रभ पर्वतके पहले जो असंख्यात द्वीप समुद्र हैं उनमें व्यन्तर देवों तथा तिर्यञ्चोंका ही निवास है। समान धरातलसे ऊपर आकाशमें सात सौ नब्बे योजनकी ऊँचाईसे लेकर नौसी योजनको ऊँचाई तक एकसौ दश योजनके पटलमें ज्योतिष्क देवोंका निवास है। सबसे नीचे तारा विचरते हैं, उनसे दश योजन ऊपर चलकर सूर्य विचरते हैं, उससे अस्सी योजन ऊपर जाकर चन्द्रमा विचरते हैं, उससे चार योजन ऊपर चलकर नक्षत्र विचरते हैं, उससे चार योजन ऊपर चलकर बुध, उससे तीन योजन ऊपर चलकर शुक्र, उससे तीन योजन ऊपर चलकर बृहस्पति, उससे तीन योजन ऊपर चलकर मङ्गल, और उससे तीन योजन ऊपर चलकर शनि ग्रह विचरते हैं । ये ज्योतिष्क देव मध्यलोकमें चमोदधि दातवलय तक फैले हुए हैं ।।२२२-२२॥
बैमानिक देयोंके निवासका वर्णन ये तु वैमानिका देवा ऊर्ध्वलोके वसन्ति ते । उपर्युपरि तिष्ठत्सु विमानप्रतरेष्विह ॥२२॥ अर्द्धभागे हि लोकस्य विषष्टिः प्रतराः स्मृताः । विमानैरिन्द्र कर्युक्ताः श्रेणीबद्धः प्रकीर्णकः ॥२२६॥ सौधर्मेशानकल्पौ द्वौ तथा सानत्कुमारकः । माहेन्द्रश्च प्रसिद्धौ द्वौ ब्रमब्रह्मोत्तरावुभौ ।।२२७॥ उभौ लान्तवकापिष्टौ शुक्रशुक्रौ महास्वनौ । द्वौ सतारसहस्रारावानतप्राणतावुभौ ।।२२८॥
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