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द्वितीयाधिकार देवोंमें इन्द्र आदि भेयोंका वर्णन इन्द्राः सामानिकाश्चैव त्रायस्त्रिंशाश्च पार्षदाः ॥२१॥
आत्मरक्षास्तथा लोकपालानीकप्रकीर्णकाः । निसामाभियोगार मेटाः प्रतिनिकायकाः ॥२१॥ त्रायस्त्रिशैस्तथा लोकपालविरहिताः परे ।
व्यन्तरज्योतिषामष्टौ भेदाः सन्तीति निश्चिताः ।।२२०॥ अर्थ-इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिश, पार्षद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, किल्विष और अभियोग्य ये दश भेद प्रत्येक निकाय में होते हैं । परन्तु व्यन्तर और ज्योतिष्क देव प्रायस्त्रिश और लोकपाल भेदसे रहित हैं अर्थात् उनके आठ ही भेद होते हैं।
भावार्थ इन्द्रादिक भेदोंके लक्षण इस प्रकार हैं
इन्द्र जो अन्य देवोंमें न पाये जानेवाले अणिमा, महिमा आदि मुणोंसे उत्कृष्ट ऐश्वर्यका अनुभव करते हैं उन्हें इन्द्र कहते हैं। ये राजाके तुल्य माने गये हैं।
सामानिक-जिनका वैभव तो इन्द्रके समान हो परन्तु आज्ञारूपी ऐश्वर्यसे रहित हों वे सामानिक कहलाते हैं । ये पिता तथा गुरु आदिके तुल्य होते हैं । __ वार्यास्त्रशा-जो मन्त्री तथा पुरोहित आदिके तुल्य हों उन्हें प्रायस्त्रिश कहते हैं । ये एक इन्द्रको सभामें गिनतीके तेतीस ही होते हैं।
पार्षदजो इन्द्रको सभामें बैठनेवाले सदस्य हैं उन्हें पार्षद या पारिषद कहते हैं । ये मित्र तथा पोठमर्द के समान होते हैं ।
आत्मरक्ष-जो अङ्गरक्षकके समान होते हैं उन्हें आत्मरक्ष कहते हैं। लोकपाल–जो आरक्षक-पुलिसके समान होते हैं वे लोकपाल कहलाते हैं। अनोक-जो सेनाके स्थानापन्न होते हैं उन्हें अनोक कहते हैं । प्रकीर्णक-जो नगरवासियोंके समान होते उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं ।
किस्विषिक-जो चाण्डाल 'आदिके समान होते हैं उन्हें किल्विषिक कहते हैं।
आभियोग्य-जो वाहनके काम आते हैं उन्हें आभियोग्य कहते हैं । __ इन दश भेदोंमेंसे त्रायस्त्रिश और लोकपाल भेद व्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंमें नहीं होते हैं । अतः उनमें आठ हो भेद होते हैं ॥२१८-२२०।।