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वस्वार्थसार
येवोंमें कामसुखका वर्णन पूर्वे कायप्रवीचारा व्याप्यैशानं सुराः स्मृताः । स्पर्शरूपध्वनिस्वान्तप्रवीचागस्ततः परे ।। ततः परेऽप्रवीचाराः कामक्लेशाल्पमावतः ॥२२१।।
. (षट्पदम् ) अर्य-भवनवासी, न्यन्तर, ज्योतिष्प और सीबों ऐशान वर्ग तकक देव कायप्रवीचार हैं। उसके आगे तीसरे चौथे स्वर्गके देव स्पर्मप्रवीचार, पांचवेसे आठवें स्वर्ग तकके देव रूपप्रवीचार नौवेसे बारहवें तक शब्दप्रवीचार और तेरहवेसे सोलहवें स्वर्ग तकके देव मनःप्रवीचार होते हैं। उसके आगेके देव प्रवाचाम् गहन होत है क्योंकि उनके काम-बाधा अत्यन्त अल्प रहती है।
भावार्थ-प्रवीचारका अर्थ कामसेवन है। सांसारिक सुखोंमें कामसेवन जन्य सूखकी प्रधानता है। इसलिये देवोंके इसी सुखका वर्णन किया गया है। भवनत्रिक देव तथा दूसरे स्वर्ग तकके कल्पवासी देव मनुष्योंके समान शरीरसे कामसेवन करते हैं 1 उसके आगे तीसरे चौथे स्वर्गके देव, देवियोंके स्पर्शमात्रसे संतुष्ट हो जाते हैं । पाँचवेंसे आठवें स्वर्ग तकके देव, देवियोंका रूप देखने मात्रसे संतुष्ट हो जाते हैं । नौवेंसे बारहवें स्वर्ग तफके देव, देवियोंके शब्द सुनने मात्रसे संतुष्ट हो जाते हैं और तेरहवेसे सोलहवें स्वर्ग तकके देव, देवियोंफा मनमें स्मरण आने मात्रसे संतुष्ट हो जाते हैं । यही हाल देवियोंका रहता है । सोलहवें स्वर्गके आगेके देव कामसेवनसे सर्वथा रहित हैं। यहाँ देवाङ्गनाओंका सद्भाव भी नहीं है। इन सबके कामवाधा अत्यन्त अल्प रहती है। इसलिये उन्हें कभी कामसुखकी इच्छा ही नहीं होती ।।२२।।
भवनन्त्रिक देवोंका भिवास कहाँ है ? धर्मायाः प्रथमे भागे द्वितीयेऽपि च कानिचित् । भवनानि प्रसिद्धानि वसन्त्येतेषु भावनाः ॥२२२।। रत्नप्रमाभुवो मध्ये सथोपरितलेऽपि च । विविधेष्वन्तरेष्वत्र व्यन्तरा निवसन्ति ते ॥२२३॥ उपरिष्टान्महीभागात पटलेषु नमोऽङ्गणे ।
तिर्यग्लोकं समाच्छाध ज्योतिष्का निवसन्ति ते ||२२४|| अर्थ-वर्मा-रत्नप्रभा पृथिवीके पहले और दूसरे भागमै कुछ भवन प्रसिद्ध