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तत्वार्थसार आरणाच्युतनामानौ द्वौ कल्पाश्चेति षोडश । अवेयाणि नवातोऽतो नवानुदिशचक्रकम् ।।२२९॥ विजयं वैजयन्तं च जयन्तमपराजितम् । सर्वार्थसिद्धिरित्वेषां पश्चानां प्रतरोऽन्तिमः ।।२३०॥ एषु वैमानिका देवा जायमानाः स्वकर्मभिः । युतिलेश्याविशुद्धयायुरिन्द्रियावधिगोचरैः ॥२३१॥ तथा सुखप्रभावाभ्यामुपर्युपरितोऽधिकाः । हीनास्तथैव ते मानगतिदेहपरिग्रहः ॥२३२॥ इति संसारिणां क्षेत्रं सर्वलोकः प्रकीर्तितः ।
सिद्धानां तु पुनः क्षेत्रमूर्वलोकान्त इष्यते ॥२३३॥ अर्थ-जो वैमानिक देव हैं वे ऊर्ध्वलोकमें ऊपर-ऊपर स्थित विमानोंके पटलोंमें निवास करते हैं 1 लोकमें वेशठ पटल हैं जो कि इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक इन तीन प्रकारके पटलोंसे युक्त हैं | सौधर्म-ऐशान, सानत्कुमार. माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ट, शुक्र-महामुक्र, सतार-सहस्रार, आनतप्राणत और आरण-अच्युत इन आठ युगलोंके सोलह कल्प हैं । इनके आगे ऊपरऊपर नौ ग्रंवेयकोंके नौ पटल हैं, उनके ऊपर नौ अनुदिश विमानोंका एक पटल है, और इसके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पाँच अनुत्तर विमानोंका एक पटल है। अपने-अपने कर्मों के अनुसार वैमानिक देव इनमें उत्पन्न होते हैं। ये वैमानिक देव द्युति, लेश्याकी विशुद्धता, आयु, इन्द्रिय तथा अवधिज्ञानका विषय, सुख और प्रभावसे ऊपर-ऊपर अधिकताको लिये हुए हैं और मान, गति, देह तथा परिग्रहकी अपेक्षा ऊपर-ऊपर हीनताको लिये हए हैं। इस तरह यह समस्त लोक संसारी जीवोंका क्षेत्र कहा गया है। सिद्ध जोवोंका क्षेत्र लोकका अन्तभाग माना गया है।
भावार्थ-जिनमें रहनेवाले अपने आपको विशिष्ट पुण्यवान् मान वे विमान कहलाते हैं, इन विमानों में जिनका निवास है वे वैमानिक कहलाते हैं। वैमानिक देवोंके कल्पवासी और कल्पातीतकी अपेक्षा दो भेद हैं। जिनमें इन्द्र आदि भेदोंकी कल्पना होती है ऐसे सोलह स्वर्ग कल्प कहलाते हैं तथा जिनमें इन्द्र आदिको कल्पना नहीं होती--सब एक समान होते हैं वे ग्रेवेयकों, अनुदिशों और अनुत्तरों के विमान कल्पातीत कहलाते हैं। सोलह स्वर्गोंके देव कल्पोपपन्न और उनके आगेके कल्पातीत कहलाते हैं | सोलह स्वर्ग, सौधर्म-ऐशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र,