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द्वितीयाधिकार
देवगतिसे आकर जीव क्या क्या होते हैं ? भाज्या एकेन्द्रियत्वेन देवा ऐशानतश्च्युताः । तियक्त्वमानुषत्वाभ्यामासहस्रारतः पुनः ।।१६९।। ततः परं तु ये देवास्ते सर्वेऽनन्तरे भवे । उत्पअन्ते मनुष्येषु न हि तिर्यक्षु जातुचित् ॥१७॥ शलाकापुरुषा न स्युभीमज्योतिष्कभावनाः । अनन्तरभवे तेषां भाज्या भवति नितिः ॥१७॥ ततः परं विकल्प्यन्ते यावद्ग्रेवेयक सुराः । शलाकापुरुषत्वेन निर्वाणगमनेन च ॥१२॥ तीर्थेशरामचक्रित्वे निर्वाणगमनेन च । च्युताः सन्तो विकल्प्यन्तेऽनुदिशानुत्तरामरः ॥१७३॥ भाज्यास्तीर्थेशचक्रित्वे च्युताः सर्वार्थसिद्धितः । विकल्प्या रामभावेऽपि सिद्धयन्ति नियमात्पुनः ॥१७४।। दक्षिणेन्द्रोस्तथा लोकपाला लौकान्तिकाः शची ।
शक्रश्च नियमाच्च्युत्वा सर्वे ते यान्ति नितिम् ॥१७॥ अर्थ-ऐशान स्वर्ग तकसे च्युत देव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो सकते हैं। सहस्रार स्वर्ग तकसे च्युत देव तिर्यञ्च और मनुष्य दोनोंमें उत्पन्न हो सकते हैं। परन्तु इसके आगेके देव अनन्तरभवमें नियमसे मनुष्योंमें ही उत्पन्न होते हैं। तिर्यञ्चोंमें कभी नहीं उत्पन्न होते । व्यन्तर, ज्योतिष्क और भवनवासी देव अनन्तरभवमें शलाका पुरुष नहीं होते । वहाँसे आये हुए मनुष्योंको निर्वाण भी प्राप्त हो सकता है । वेषक तकसे आये हुए देव शलाकापुरुष हो सकते हैं और मोक्ष भी जा सकते हैं 1 अनुदिश और अनुत्तरवासी देव वहाँसे च्युत होकर तीर्थकर, बलभद्र और चक्रवर्ती हो सकते हैं और निर्वाणको भी प्राप्त हो सकते हैं। सर्वार्थसिद्धिसे च्युत देव तीर्थकर चक्रवती और बलभद्र भी हो सकते हैं तथा नियमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं। दक्षिण दिशाके इन्द्र, लोकपाल, लोकान्तिकदेव, शची और सौधर्मेन्द्र ये सभी स्वर्गसे च्युत हो, नियमसे मनुष्य होकर उसो भवसे मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥ १६९-१७५ ॥
लोकका वर्णन धर्माधर्मास्तिकायाभ्यां व्याप्तः कालाणुभिस्तथा । व्योम्नि पुद्गलसंछन्नो लोकः स्यात्क्षेत्रमात्मनाम्॥१७६॥