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तत्त्वार्थसार नीचेके पटलोंमें कृष्ण लेश्या है। छठवी भूमिमें कृष्ण लेश्या है और सातवों भूमिमें परम कृष्णलेश्या है। इन नारकियोंका शरीर अत्यन्त विरूप आकृति तथा हुण्डकसंस्थानसे युक्त होता है। देखनेमें भी भयंकर होता है । प्रथम भूमिके नारकियोंका शरीर सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल ऊँचा रहता है और नीचेमोचेकी पृथिवियोंमें दूना-दुना हो जाता है। नरकोंकी वेदनाओंको शब्दोंद्वारा नहीं गिनाया जा सकता। वहाँ पहली, दुसरी, तीसरी और चौथी भमिमें उष्णवेदना है, पांचवीं भूमिमें ऊपरके दो लाख दिलोंमें उष्णबेदना है और नीचेक एक लाख विलोंमें तथा छठवों और सातवी भमिमें शीनवेदना है। जिन नरकोंमें उष्णवेदना है उनमें मेरुपर्वतके बराबर लोहेका गोला यदि पहँच सके तो वह क्षणमात्रमें गलकर पानी हो जावेगा और जिनमें शोतवेदना है उनमें मेरुपर्वतके बराबर लोहेका गोला शोतवायुके स्पर्शसे फटकर क्षार-क्षार हो जायगा। वहाँकी विक्रिया भी अत्यन्त अशुभ होती है। नारकियोंके अपृथक् विक्रिया होती है अर्थात् अपने शरीरमें ही वे परिणमन कर सकते हैं। हे अतविमिमा करना चाहते हैं पर अशुभ विक्रिया ही होती है । इन उपर्युक्त दुःखोंसे ही उनका कष्ट शान्त नहीं होता, ऊपरकी तीन पृथिवियों तक असुरकुमार जातिके देव जाकर उन् नारकियोंको पूर्व वैरका स्मरण दिलाकर परस्परमें लड़ाते हैं। उन्हें लड़ते देखके स्वयं सुखी होते हैं। उन असुरकुमारोंके इसी जातिके संक्लेश परिणाम रहते हैं। इस तरह उन भूमियोंमें नारकी, भूमि सम्बन्धी दुःखोंको, परस्पर उपजाये दुःखोंको और असुरकुमार देवोंके द्वारा उदीरित दुःखोंको आयुपर्यन्त भोगते हैं, असमयमें वहाँसे निकलना नहीं होता ।। १८४-१८६ ।।
मध्यलोकका वर्णन मध्यभागे तु लोकस्य तिर्यक्प्रचयवद्धिनः । असंख्याः शुभनामानो भवन्ति द्वीपसागराः ॥१८७।। जम्बूद्वीपोऽस्ति तन्मध्ये लक्षयोजनविस्तारः । आदित्यमण्डलाकारो बहुमध्यस्थमन्दरः ।।१८८।। द्विगुणद्विगुणेनातो विष्कम्भेणार्णवादयः । पूर्व पूर्व परिक्षिप्य वलयाकृतयः स्थिताः ॥१८॥ जम्बूद्वीयं परिक्षिप्य लवणोदः स्थितोऽर्णवः । द्वीपस्तु धातकीखण्डस्तं परिक्षिप्य संस्थितः ॥१९॥ आवेष्टय धातकीखण्डं स्थितः कालोदसागरः । आवेष्टय पुष्करद्वीपः स्थितः कालोदसागरम् ।।१९१॥