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तत्त्वार्थसार कृष्णा नीला च कापोता पीता पना तथैव च ।
शुक्ला वेति भवत्येषा द्विविधापि हि षड्विधा ||८|| अर्थ-भावकी अपेक्षा कषायके उदयसे रेंगी हुई योगवृत्ति लेश्या कहलाती है और द्रव्यकी अपेक्षा शरीर-नामकर्मके उदयसे निर्मित शरीरकी कान्ति लेश्या कहलाती है । यह दोनों प्रकारको लेश्या कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पन और शुक्लके भेदसे छह प्रकारको होती है। कृष्णादि लेश्याओंके लक्षण पहले कहे जा चुके हैं ।। ८८-८९ ।।
भव्यत्वमार्गणाका वर्णन भव्याभव्यविभेदेन द्विविधाः सन्ति जन्तवः ।
भव्याः सिद्धत्वयोग्याः स्युर्विपरोतास्तथापरे ॥९०|| अर्थ- भव्य और अभव्यके भेदसे जीद दो प्रकारके हैं। जो सिद्धपर्याय प्राप्त करनेके योग्य हैं वे भव्य कहलाते हैं और जो इनसे विपरीत हैं वे अभव्य कहे जाते हैं ।। ९०॥
सम्यक्त्वमार्गणाका वर्णन सम्यक्त्वं खलु तच्चार्थश्रद्धानं तत्रिधा भवेत् । स्यात्सासादनसम्यक्त्वं पाकेऽनन्तानुबन्धिनाम् ।।११।। सम्यग्मिथ्यात्वपाकेन सम्यग्मिध्यावमिष्यते ।
मिथ्यात्वमुदयेनोक्तं मिथ्यादर्शनकर्मणः ।।९२|| अर्थ-तत्त्वार्थके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहते हैं। औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिकके भेदसे वह सम्यक्त्व' तीन प्रकारका होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभके उदयसे सासादनसम्यक्त्व होता है। सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयसे सम्यग्मिथ्यात्व होता है तथा मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे मिथ्यात्व होता है। इस तरह सम्यक्त्वमार्गणाके छह भेद हैं। इनके लक्षण पहले कहे जा चुके हैं । मिथ्यात्व पहले गुणस्थानमें, सासादन दूसरे गुणस्थानमें, सम्यग्मिथ्यात्व तीसरे गुणस्थानमें, औपमिकसम्यग्दर्शन चौथेसे ग्यारहवें गुणस्थान तक, क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शन चौथेसे सातवें तक और क्षायिकसम्यग्दर्शन चौथेसे चौदहवें तक तथा सिद्धगर्यायमें भी रहता है ।। ९१-९२ ।।
संज्ञीमागंणाका वर्णन यो हि शिक्षाक्रियात्मार्थग्राही संज्ञी स उच्यते । अतस्तु विपरीतो यः सोऽसंज्ञी कथितो जिनैः ॥२३॥