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द्वितीयाधिकार
संयमासंयमः
विरताविरतवेन प्राणिघाताक्षविषयभावेन
अर्थ – चारित्रमोहनीय कर्मके उपराम आदिके द्वारा प्राणघातका परित्याग होता है वह निश्चयसे संयम कहलाता है । यह सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यातके भेदसे पाँच प्रकारका कहा जायेगा | एक ही साथ विरत और अविरत अवस्था होनेसे संयमासंयम होता है तथा प्राणिघात और इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रवृत्ति होनेसे असंयम होता है ।
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भावार्थ - चारित्रमोहनीयकर्म के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमसे आत्मा में जो विशुद्धता प्रकट होती है उसे संयम कहते हैं। यह संयम, सामायिक आदिके भेदसे पाँच प्रकारका होता है तथा छठवें गुणस्थान से प्राप्त होता है । सामायिक और छेदोपस्थापना छठवेंसे नौवें गुणस्थान तक रहते हैं, परिहारविशुद्धि छठवें और सातवें गुणस्थान में होता है सूक्ष्म सांपराय सिर्फ छठवें गुणस्थान में होता है और यथा ग्यारहवें आदि गुणस्थानों में होता है। इन पाँच संयमोंके सिवाय संयममार्गणा के संयमासंयम और असंयम ये दो भेद और भी हैं। संयमासंयम पञ्चम गुणस्थान में होता है और असंयम प्रथम गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक रहता है। सामायिक आदि संयमोंके लक्षण संवरके प्रकरणमें कहे जायेंगे ।। ८४-८५ ॥
स्मृतः । स्यादसंयमः ।। ८५ ।।
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दर्शन मार्गेणाका वर्णन दर्शनावरणस्य स्यात् क्षयोपशमसन्निधौ । आलोचनं पदार्थानां दर्शनं तच्चतुर्विधम् ||८६ ॥ चक्षुर्दर्शनमेकं स्यादचक्षुर्दर्शनं तथा । अवधिदर्शनं चैव तथा केवलदर्शनम् ||८७ || अर्थ-दर्शनावरण कर्मका क्षयोपशम ( और क्षय) होनेपर जो पदार्थोकर सामान्य अवलोकन होता है उसे दर्शन कहते हैं । यह चार प्रकारका हैचक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ।
भावार्थ-चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुर्दशनावरण और अवधिदर्शनावरण इन तीन प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर क्रमसे चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन तथा अवधिदर्शन प्रकट होते हैं और केवलदर्शनावरणका क्षय होनेपर केवलदर्शन प्रकट होता है । इनके लक्षण पहले कहे जा चुके हैं ॥ ८६-८७ ॥
श्यामार्गणाका वर्णन
योगवृत्तिर्भवेल्लेश्या
कषायोदयरचिता । भायतो द्रव्यतः कायनामोदयकृताङ्गरुक् ||८८||