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वितीयाधिकार उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थानका स्वरूप उपशान्तकषायः स्यात्सर्वमोहोपशान्तितः ।
भवेत्क्षीणकषायोऽपि मोहस्यात्यन्तसंक्षयात् ॥२८|| अर्थ-जहाँ सम्पूर्ण मोहनीयकर्मका उपशम हो जाता है वह उपशान्तकपाय गुणस्थान है और जहाँ सम्पूर्ण मोहनीयकर्मका क्षय हो जाता है वह क्षीणकपाय गुणस्थान कहलाता है।
भावार्थ-उपशमश्रेणीवाला जीव दशम गुणस्थानके अन्तमें मोहनीयकर्मका जब उपशम कर चुकता है तब वह उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानको प्राप्त होता है। इस गुणस्थानमें मोहनीयकर्मके किसी भी भेदका उदय नहीं रहता । यहाँ जीवके परिणाम, शरद् ऋतुके उस सरोवरके जलके समान जिसकी कि कोचड़ नीचे बैठ गई है, बिलकुल निर्मल हो जाते हैं। इस गुणस्थानकी स्थिति सिर्फ अन्तर्मुहूर्तकी है उसके बाद जीव नियमसे गिर जाता है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव गिरकर चतुर्थ गुणस्थान तक आ सकता है और उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्दर्शनसे भी गिरकर प्रथम गुणस्थान तक आ सकता है। क्षपकश्रेणीवाला जीव दशम गणस्थानके अन्तमें मोहनीयकर्मका सर्वथा क्षयकर वारहवें क्षीणकषाय गुणस्थानमें पहुँचता है। यहाँ कषायका सर्वथा क्षय हो जाता है। इस गुणस्थानमें शुक्लध्यानका दूसरा पाया प्रकट होता है | उसके प्रभावसे जीव शेष बचे हुए ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोका तथा नामकर्मकी तेरह प्रवृत्तियोंका क्षय करता है। क्षपकवेणीवालं जीवके मवीन आयुका बन्ध होता नहीं है इसलिये वर्तमान-भुज्यमान मनुष्यायुको छोड़कर शेष तीन आयुकर्मोका क्षय करके अपने आप ही रहता है। इस तरह इस गुणस्थानके अन्तम राठ कर्मप्र कृतियोंकी सत्ता नष्ट हो जाती है ।। २८ ।।
सयोगकेवली और अयोगकेवली गुणस्थानोंका स्वरूप उत्पन्न केवलज्ञानो घातिकर्मोदयक्षयात् ।
सयोगश्चाप्ययोगश्च स्यातां केवलिनावुभौ ॥२९।। अर्थ-घातियाकर्मोका क्षय हो जानेसे जिसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया है किन्तु योग विद्यमान है वह सयोगकेवलीगुणस्थानवर्ती कहलाता है और जिसके योगका अभाव हो जाता है वह अयोगकेवलीगुणस्थानवर्ती कहा जाता है। ___ भावार्थ-बारहवें गुणस्थानके अन्तमें ब्रेसठ कर्मप्रकृतियोंका क्षयकर जीव तेरहवें गुणस्थानमें प्रवेश करता है। इसे यहाँ लोकालोकावभासी केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है इसलिये इसे केवली कहते हैं। साथमें योग रहने के कारण सयोग