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तत्त्वार्थसार
और नरकगतिमें वैक्रिटिकके साथ रहते हैं तथा छठवें गुणस्थानवर्ती किसी सुनिकेतला अवस्था में आहारक शरीरके साथ रहते हैं ।।७४-७५ ।।
लब्धिप्रत्यय तैजस और वैक्रियिकशरीरका वर्णन औदारिकशरीरस्थं लब्धिप्रत्ययमिष्यते । अन्यादृक् तैजसं साधोर्व पुर्वक्रियिकं तथा ॥ ७६ ॥
अर्थ — औदारिकशरीरसे युक्त किसी मुनिके लब्धिप्रत्यय ऋद्धि विशेषसे उत्पन्न होनेवाला एक अन्य प्रकारका तेजस तथा वैक्रिविकशरोर माना जाता है ।
भावार्थ - लब्धिप्रत्यय तेजसके दो भेद हैं- शुभ तेजस और अशुभ तेजस | शुभ तेजस चन्द्रमा के समान सफेद रङ्गका होता है तथा मुनिके दाहिने कन्धेस निकलता है । इसके प्रभावसे बारह योजन तक रोग आदि नष्ट हो जाते हैं । अशुभ तैजस सिन्दूरके समान लाल रङ्गका होता है । यह मुनिके चाँयें कन्धे निकलता है तथा बारह योजन तकके क्षेत्रको भस्म कर देता है। मुनि भी भस्म होकर दुर्गतिमें जाते हैं । तैजसशरीरके समान किन्हीं - किन्हीं मुनिके वैक्रिशिरोर भी लब्धिप्रत्यय होता है । इसे विक्रियाऋद्धि कहते हैं ।। ७६ ॥
औदारिक और मैं क्रिधिकशरीर की उत्पत्तिका वर्णन
औदारिकं शरीरं स्याद्गर्भसम्मूर्च्छनोद्भवम् ।
तथा वैक्रियिकाख्यं तु जानीयादोपपादिकम् ॥७७॥
अर्थ — औदारिकशरीर गर्भ और सम्मूर्च्छन जन्मसे उत्पन्न होता है तथा क्रियिकदार उपपाद जन्मसे उत्पन्न होता है । अथवा गर्भ और सम्मूर्च्छन जन्मसे जिसकी उत्पत्ति होती है उसे औदारिक शरीर कहते हैं तथा उपपाद जन्मसे जिसकी उत्पत्ति होती हैं उसे वैक्रियिकशरीर कहते हैं ॥ ७७ ॥
आहारकशरीरका लक्षण
अव्याघाती शुभः शुद्धः प्राप्तः प्रजायते ।
संयतस्य प्रमत्तस्य स खल्वाहारकः स्मृतः ||७८ ||
अर्थ — ऋद्धिधारक प्रमत्तसंयत मुनिके जो व्याघातसे रहित, शुभ तथा
शुद्ध पुतला निकलता है वह आहारकशरीर माना गया है ।। ७८ ।।
वेदमार्गणाका वर्णन
भाववेदस्त्रिभेदः स्यान्नोकषायविपाकजः । नामोदयनिमित्तस्तु द्रव्यवेदः स च त्रिधा ॥७९॥