________________
द्वितीयाधिकार प्रतर तथा लोकपुरणमें कार्मण काययोग होता है। तैजस शरीरके निमित्तसे आत्मप्रदेशोंमें परिस्पन्द नहीं होता, इसलिये तैजसयोग नहीं माना गया है ।। ७१ ।।
औदारिक शरीरोंको सूक्ष्मता और प्रदेशोंका वर्णन औदारिको वैक्रियिकस्तथाहारक एव च । तैजसः कार्मणश्चैवं सूक्ष्माः सन्ति यथोत्तरम् ॥७२॥ असंख्येयगुणौ स्यातामायादन्यो प्रदेशतः ।
यथोत्तरं तथानन्तगुणौ तैजसकाणी ॥७३॥ अर्थ-औदारिका, बैक्रियिका, आहारक, तेजस और कार्मण ये पांच शरीर आगे-आगे मूक्ष्म-सूक्ष्म हैं अर्थात् औदारिक शरीरकी अपेक्षा वैक्रियिक, बक्रियिककी अपेक्षा आहारक, आहारकको अपेक्षा तैजस और तैजसको अपेक्षा कार्मणशरोर मूक्ष्म है। प्रदेशों की अपेक्षा औदारिकशरीरसे लेकर क्रियिक और आहारक असंख्यातगुणे हैं और तैजस तथा कार्मण अनन्तगुणे हैं अर्थात् औदारिकशरोरके जितने प्रदेश हैं उनसे असंख्यातगुणे वैक्रियिकके हैं, बैंक्रियिकके जिसने प्रदेश हैं उनसे असंख्यातगुणे आहारकके हैं, आहारकसे अनन्तगुणे तैजसके और उनसे अनन्तगुणे कार्मणशरीरके हैं ।।७२-७३ ।।
तैजस और कार्मणशरीरको विशेषता उभौ निरुपभोगौ तौ प्रतिघातविपर्जितौ । सर्वस्यानादिसम्बन्धौ स्यातां तैजसकार्मणौ ॥७॥ तौ भवेतां क्वचिच्छुद्धौ कचिदौदारिकाधिकौ ।
कचिद्वैक्रिथिकोपेतौ तृतीयाधयुतौ कचित् ।।७।। अर्थ-तैजस और कार्मणशरीर उपभोग-इन्द्रियों द्वारा विषयग्रहणसे रहित हैं, प्रतिघात-रुकावटसे रहित हैं और सामान्यकी अपेक्षा सब जीवोंके साथ अनादि सम्बन्ध रखनेवाले हैं। तेजस और कार्मण ये दो शरीर कहीं तो शुद्ध-अर्थात् अन्य शरीरोंसे रहित होते हैं, कहीं औदारिक शरीरसे अधिक होते हैं, कहीं वैक्रियिकशरीरसे अधिक होते हैं और कहीं आहारकशरीरसे अधिक होते हैं।
भावार्थ-विग्रहगतिमें मात्र तैजस और कामण ये दो शरीर रहते हैं, मनुष्य और तिर्यञ्चगतिमें तैजस कार्मणशरीर औदारिकशरीरके साथ रहते हैं, देव