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तत्वार्थसार
बाह्यनितिका लक्षण तेष्वैवात्मप्रदेशेषु करणव्यपदेशिषु ।
नामकर्मकृतावस्थः पुद्गलपचयोऽयरा ॥४२।। अर्थ--इन्द्रिययावो पास हुए ही आत्मशोपर नागफमक उदयसे इन्द्रियाकार परिणत जो पुद्गलका प्रचय है उसे बानिवृत्ति कहते हैं ।। ४२ ॥
आभ्यन्तर और बाह्य उपकरण आभ्यन्तरं भवेत्कृष्णशुक्लमण्डलकादिकम् ।
बायोपकरणं त्वक्षिपक्ष्मपत्रद्वयादिकम् ।।४३॥ अर्थ-काला तथा सफेद गदेना आदि आभ्यन्तर उपकरण है और नेत्रोंको बरूनी तथा दोनों पलक आदि बाह्य उपकरण हैं ।। ४३ ।।
भावेन्द्रिय और लब्धिका लक्षण लब्धिस्तथोपयोगश्च भावेन्द्रियमुदाहृतम् ।
सा लब्धिोंधरोधस्य यः क्षयोपशमो भवेत् ॥४४॥ अर्थ-लब्धि और उपयोगको भावेन्द्रिय कहा है | ज्ञानावरणकर्मका जो क्षयोपशम है वह लब्धि कहलाती है ।। ४४ ।।
उपयोगका लक्षण और उसके भेद स द्रव्येन्द्रियनितिं प्रति व्याप्रियते यतः । कर्मणो ज्ञानरोधस्य क्षयोपशमहेतुकः ॥४५॥ आत्मनः परिणामो य उपयोगः स कथ्यते |
ज्ञानदर्शनभेदेन द्विधा द्वादशधा पुनः ।।४।। अर्थ-जिसके सन्निधानसे आत्मा द्रव्येन्द्रियकी रचनाके प्रति व्याप्त होता है ऐसा ज्ञानावरणकर्मको क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाला आत्माका परिणाम उपयोग कहलाता है। ज्ञान और दर्शभके भेदसे मुलमें उपयोग दो प्रकार है फिर ज्ञानोपयोगके आठ और दर्शनोपयोगके चार भेद मिलाकर बारह प्रकारका होता
इन्द्रियोंके नाम और क्रम स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्र मतः परम् । इतीन्द्रियाणां पश्चाना संज्ञानुक्रमनिर्णयः ॥४७॥