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द्वितीयाधिकार जीवतत्त्वनिरूपण
मङ्गलाचरण और प्रतिज्ञायाक्य अनन्तानन्तजीवानामेकैकस्य प्ररूपकान् ।
प्रणिपत्य जिनान्मृनो जीवतत्वं प्ररूप्यते ॥ १ ॥ अर्थ-अनन्तानन्त जीवों से एक-एक जीवका निरूपण करनेवाले जिनेन्द्र भगवानको शिरसे प्रणाम कर जीवतत्त्वका निरूपण किया जाता है ॥१॥
जीवका लक्षण अन्यासाधारणा भावाः पञ्चोपचमिकादयः ।
स्वं तत्त्वं यस्य तत्वस्य जीवः स व्यपदिश्यते ।। २ ।। अर्थ-जीवको छोड़कर अन्य द्रव्योंमें नहीं पाये जाने वाले औपशमिक आदि पांच भाव जिस तत्त्चके स्वतस्व हैं वह जीव कहा जाता है ।। २॥
____औपशमिकादि पांच भावोंके नाम स्यादौपशमिको भावः क्षायोपमिकस्तथा ।
क्षायिकश्चाप्यौदयिकस्तथान्यः पारिणामिकः ।। ३ ।। अर्थ-औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, औदयिक और पारिणामिक ये जीवके स्वतत्त्व है। ___ भावार्थ औपशमिकादि भाव जीवके स्वतत्त्व इसलिये कहे जाते हैं कि ये जीवको छोड़कर अन्य द्रव्योंमें नहीं पाये जाते। परन्तु स्वतत्त्व होने मात्रसे ये जीवके लक्षण नहीं हो सकते, क्योंकि लक्षण बही हो सकता है जो समस्त लक्ष्यमें पाया जावे, अलक्ष्यमें न पाया जावे तथा असंभव दोपसे रहित हो । औपशमिक, क्षायोपशमिक, झायिक और औदयिक भाव सब जीवोंमें नहीं पाये जाते, मात्र पारिणामिक भावोंमें जीवत्व नामका पारिणामिक भाव सब जीबोंमें पाया जाता है। अब इन भावोंके लक्षण लिखते हैं
१ औपशामिक भाव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके कारण अन्तमहर्तके लिये कर्मोकी फल देनेकी शक्तिका प्रकट नहीं होना उपशम कहलाता है । इस उपशमके समय जो भाव होता है उसे औपशमिकभाव कहते हैं ।