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तस्वार्थसार
जोयका लक्षण
अनन्यभृतस्तस्य स्यादुपयोगो हि लक्षणम् । जीवोऽभिव्यज्यते तस्मादयष्टब्धोऽपि कर्माभः ॥ ५ ॥
अर्थ - तादात्म्यभावको प्राप्त उपयोग हो जीवका लक्षण है। आठ कर्मोसे आच्छादित होनेपर भी जीव उस उपयोग के द्वारा प्रकट होता है - अनुभवमें आता है || २ ||
उपयोगके भेद
साकारश्च निराकारो भवति द्विविधश्च सः । साकारं हि भवेज्ज्ञानं निराकारं तु दर्शनम् ||१०|| कृत्वा विशेषं गृह्णाति वस्तुजातं यतस्ततः । साकारमिष्यते ज्ञानं ज्ञानयाथात्म्यवेदिभिः ||११|| यद्विशेषभकृत्वैव गृह्णीते वस्तुमात्रकम् । निराकारं ततः प्रोक्तं दर्शनं विश्वदर्शिभिः ||१२|| ज्ञानमष्टविधं ज्ञेयं मतिज्ञानादिभेदतः । चक्षुरादिविकल्पाच्च दर्शनं स्याच्चतुविधम् ||१३||
अर्थ- वह उपयोग साकार ( सविकल्पक ) और निराकार निर्विकलाक ) के भेदसे दो प्रकारका है। उनमें ज्ञान साकार है और दर्शन निराकार | क्योंकि ज्ञान वस्तुसमूहको 'यह घट है, यह पद है' इत्यादि रूपमे विशेषको करके जानता है इसलिये ज्ञानकी यथार्थताको जाननेवाले मुनियोंके द्वारा ज्ञान साकार - सविकल्प माना जाता है और दर्शन विशेषताको न कर सामान्यरूपसे वस्तुको ग्रहण करता है इसलिये सर्वदर्शी भगवान्ने दर्शनको निराकार — निर्विकल्प कहा है । मतिज्ञानादि पांच सम्यग्ज्ञान और कुमति आदि तीन मिथ्याज्ञान के भेदसे ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका और चक्षुदर्शन आदिकं भेदसे दर्शनोपयोग चार प्रकारका जानना चाहिये ।। १०-१३ ।।
जीवोंके भेव
संसारिणश्च मुक्ताश्च जीवास्तु द्विविधाः स्मृताः । लक्षणं तत्र मुक्तानामुत्तरत्र प्रचक्ष्यते ||१४|| सांप्रतं तु रूप्यन्ते जीवाः संसारवर्तिनः । जीवस्थान गुणस्थानमार्गणादिषु तत्त्वतः || १५ |