________________
।
३८
तस्वार्थसार विरत या संयतासंयत कहलाता है । यह गुणस्थान तिर्यञ्च और मनुष्यगतिमें ही होता है । इस गुणस्थान में भी नियमसे देवायुका ही बन्ध होता है। जिस जीवके पहले देवायुको छोड़कर यदि किसी अन्य आयुका बन्ध हो गया हो तो उस जीवके उस पर्यायमें यह गुणस्थान ही नहीं होगा ॥ २२ ॥
प्रमत्तसंयत गुणस्थानका स्वरूप प्रमत्तसंयतो हि स्यात्प्रत्याख्याननिरोधिनाम् ।
उदयक्षयतः प्राप्ता संयमद्धिः प्रमादवान् ॥२३॥ अर्थ-प्रत्याख्यानावरणकषायके क्षयोपशयसे जो संयमरूप संपत्तिको प्राप्त होकर भी प्रमादसे युक्त रहता है वह प्रयत्तसंयत गुणस्थानवतों कहा जाता है।
भावार्थ-प्रत्याख्यान-सकलचारित्रको घातनेवाली' कपाय प्रत्याख्यानावरण कहलाती है। जब इस कषायका क्षयोपशम होता है तब मनुष्य सकलचारित्रको ग्रहण करता है-हिंसादि पाँच पापोंका सर्वदेश त्याग कर देता है । परन्तु संज्खलनकषायका तीव्रोदय होनेसे प्रमादयुक्त रहता है इसलिये इसे प्रमत्तसंयत कहते हैं। चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रियोंके विषय, निद्रा और स्नेह ये प्रमादके पन्द्रह भेद हैं। इनमें कदाचित् मुनिकी प्रवृत्ति होती है इसलिये छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिको प्रमत्तसंयत कहा जाता है। यहाँ प्रमाद उतनी ही मात्रामें होता है जितनी मात्रासे वे अपने गृहीतचरित्रसे पतित नहीं हो पाते। मुनिव्रत धारण करनेपर सर्वप्रथम सप्तम गुणस्थान होता है। पश्चात् वहाँसे गिरकर जीव छठवें गुणस्थानमें आता है। छठवेसे चढ़कर पुन: सातव में जाता है और पुनः वहाँसे गिरकर छठवें गुणस्थानमें आता है। इस तरह यह जीव छठवें सातवें गुणस्थानको भूमिकामें हजारों बार चढ़ता तथा उतरता है। यह गुणस्थान तथा इसके आगेके गुणस्थान मनुष्यमतिमें ही होते हैं । द्रव्यवेदको अपेक्षा पुरुषवेदीके ही यह गुणस्थान होता है परन्तु भाववेदफी अपेक्षा तीनों वेदवालेके हो सकता है। इस गुणस्थानमें यदि आयुबन्धका अवसर आता है तो नियमसे देवायुका ही बंध होता है । देवायुको छोड़कर किसी अन्य आयुका बन्ध होनेपर उस जीवके उस पर्यायमें यह गुणस्थान ही नहीं होगा, ऐसा नियम है ॥ २३ ॥
____ अप्रमससंयतका स्वरूप संयतो ह्यप्रमत्तः स्यात् पूर्ववत्प्राप्तसंयमः ।
प्रमादविरहावृत्तेत्तिमस्खलितां दधत् ॥२४॥ अर्थ-जो छठवें गुणस्थानकी तरह संयमको प्राप्त हुआ है तथा प्रमादका